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जैन दर्शन से स्याद्वाद.
(४७) स्याद्वादका क्षेत्र उक्त नित्य और अनित्य इन दोही बातोंमें पर्याप्त नहीं होता है । * सत्त्व और असत्त्व आदि दूसरी, विरुद्धरूपमें दिखाइ देनेवाली बातें भी स्याद्वादमें आ जाती हैं । घड़ा आँखोंसे प्रत्यक्ष दिखाई देता है, इससे यह तो अनायास ही सिद्ध हो जाता है कि वह 'सत्' है । मगर न्याय कहता है कि अमुक दृष्टिसे वह 'असत् ' भी है।
___ यह बात खास विचारणीय है कि, प्रत्येक पदार्थ जो 'सत्' कहलाता है किस लिए ? रूप, रस, आकार आदि अपने ही गुणोंसे-अपने ही धर्मोंसे-प्रत्येक पदार्थ ' सत् ' होता है । दूसरेके गुणोंसे कोई पदार्थ ' सत् ' नहीं हो सकता है । जो बाप कहाता है, वह अपने पुत्रसे, किसी दूसरेके पुत्रसे नहीं। यानी खास पुत्र ही पुरुषको बाप कहता है; दूसरेका पुत्र उसको बाप नहीं कह सकता । इस तरह जैसे स्वपुत्रकी अपेक्षा जो पिता होता है वही पर-पुत्रकी अपेक्षा अपिता होता है; वैसे ही अपने गुणोंसे अपने धर्मोंसे-अपने स्वरूपसे जो पदार्थ ' सत् ' है, वही पदार्थ दूसरेके धर्मोसे-दूसरोंमें रहे हुए गुणोंसे-दूसरोंके स्वरूपसे 'सत्' नहीं हो सकता है । जब — सत् ' नहीं हो सकता है, तब यह बात स्वतः सिद्ध हो जाती है कि वह 'असत् ' होता है।
इस तरह भिन्न भिन्न अपेक्षाओंसे 'सत्' को ' असत् ' कहने में विचारशील विद्वानोंको कोई बाधा दिखाई नहीं देगी।
* अस्तित्व और नास्तित्व।