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________________ जीवपर सप्तभंगी.. (३९) नास्तिता है. जैसे अभी में और उसके कणीयें में दाहकत्व धर्मतुल्य है. परन्तु अग्नि और कणीयेकी दाहकता परापर भिन्न है. अर्थात् जो दाहकता अभिकी है वह कणीयें में नहीं है. और करणीयेकी अग्नि में नहीं है. इसीतरह एक जीवके ज्ञानादि गुण अन्य दूसरे जीवमें नहीं हैं. शेष चेतनत्व, ज्ञायकत्व कार्य धर्म तुल्य होते हुवे भी सबमें जो गुण है वह अपना २ है. एकका गुण दूसरे में नहीं जाता आता. इसलिये विजातीय अन्य द्रव्य, गुण, पर्याय और धर्म की विवक्षित जीवमें नास्ति है. इसीतरह गुण में भी अन्य द्रव्यकी नास्ति है और पर्याय अविभागमें भी स्वजातीय अविभाग कार्य कारणता की नास्ति है. इसतिरह परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावपने की नास्ति रही हुई है. उसमें असत्यादि अनन्त धर्मकी सापेक्षता भास करानेके लिये स्यात् पद पूर्वक यह द्वितीय स्यात् अस्तिनामक भंग कहा. केषांचिद्धर्माणां वचन अगोचरत्वेन तेन स्यात् अवक्तव्य इति तृतीयोभङ्गः वक्तव्यः धर्मसापेक्षार्थ स्यात्पदग्रहण म् अर्थ — अब तीसरा भंग कहते हैं. प्रत्येक वस्तुमें कितनेक धर्म ऐसे हैं, जिनका वचनद्वारा उच्चारण नहीं हो सक्ता उसको अवक्तव्य कहते हैं. उन सब धर्मों को केवली केवलज्ञानसे जानते हैं. तथापि वचनसे कहने के लिये वे भी असमर्थ हैं. ऐसे धर्म की अपेक्षा से वस्तु अवक्तव्य है परन्तु केवल अवक्तव्य कहने से वक्तव्य धर्म की नास्तिता प्रगट होती है और वस्तुमें वक्तव्य धर्म है. इसकी सापेक्षता के लिये स्यात् पद ग्रहण करके स्यात अवक्तव्य नामक तसिरा भंग कहा.
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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