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________________ (<) नयचक्रसार हि० प्र० कारी द्रव्यं एतलक्षणं स्व स्व शक्ति धर्मापेक्षया । धर्मास्तिकाय -अधर्मास्तिकाय - आकाशास्तिकाय- पुद्गलास्तिकाय-जीवास्तिकाय- कालश्चेति. अर्थ — अब द्रव्य का लक्षण कहते हैं उत्पाद, व्यय, ध्रुवयुक्त शाश्वतपने हो उसको द्रव्य कहते हैं. यह लक्षण द्रव्यास्ति, पर्यायास्ति दोनो नयों की अपेक्षा से है. तथा गुण, पर्यायसहित द्रव्य यह पर्यायास्ति नय की अपेक्षा से है. स्वक्रिया करनेवाला हो वह द्रव्य. ये लक्षण अपनी २ शक्ति धर्मापेक्षा से जानना. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल इति. विवेचन – अब द्रव्य का लक्षण कहते हैं. उत्पाद अर्थात् नये पर्याय का उत्पन्न होना, व्यय अर्थात् पूर्व पर्याय का विनाश होना और ध्रुव अर्थात् नित्यपना. यह तीनो परिणमन सदा परिगर्ने उस को द्रव्य कहते हैं. अर्थात् वे गुण कार्य कारण दोनों रुपसे समकाल ही में परिणमते हैं. कारण विना कार्य नहीं होता और जिससे कार्य न हो उस को कारण भी नहीं समझना जो उपादान कारण है वही कार्य होता है. कारणता का व्यय और कार्यता का उत्पाद समकाल में होता है. कारणता प्रतिसमय नयी नयी होती है इसी तरह कार्यता भी नयी २ होती है. कारणता का भी उत्पाद, व्यय है और कार्यता का भी उत्पाद व्यय है. तथा गुणपिंडरुपसे और द्रव्याधाररूपसे ध्रुब है. इस परिणति से
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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