SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४ ) . नयचक्रसार, हि० अ० रहा हुवा स्वरूप, उसमें लिंग बाह्य यथा - गाय का लक्षण "" सा नादिसहितपना " यह बाह्याकाररूप लक्षण है, इस बाह्याकार से मेधकरवाना बालबुद्धि वालों के लिये है और वस्तु को वस्तुधर्म से जानना यह स्वरुप लक्षण है. यथा - जिसमें चेतनादि लक्षण हो वह जीव तथा चेतना रहित हो वह अजीव इत्यादि लक्षण से पहिचानना यह स्वरूप लक्षण है. इसी तरह अनेक प्रकार से समझ लेना. तत्र द्रव्यभेदा यथा जीवा अनन्ताः कार्यभेदेन भावभेदा भवन्ति क्षेत्रका भाव भेदानामेक समुदायित्वं द्रव्यत्वम् अर्थ — द्रव्य से भेद यथा जीव अनन्त है, कार्य के भेद से भाव भेद होता है. क्षेत्र, काल, भावभेदों का जो एक समुदाय उसको द्रव्य कहते हैं. विवेचन - अब भेदका स्वरूप कहते है. - जो वस्तु कथन की जाय उसके चार भेद है ( १ ) द्रव्य ( २ ) क्षेत्र ( ३ ) काल ( ४ ) भाव. तत्र उस में द्रव्य का भेद जैसे - लक्षण से एक सरीखे हैं परन्तु पिंड रूपसे पृथक २ हो उसको द्रव्यभेद कहते है. जैसे सर्व जीव जीवत्वरूप सामान्यता से सरीखे है. परन्तु प्रत्येक जीव स्वगुण, पर्याय से पिंडपने जुदे जुदे हैं, कोई किसी में मिल नहीं सक्ता इस लिये द्रव्य भिन्नता से जीव अनंते है. पुद्गल परमाणु भी जडतापने सरीखे है परन्तु सब परमाणु द्रव्यरूप से जुदे रहे
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy