SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अतिव्यादि स्वभाव. (८७) आदिश ग्रहण करते हुवे यह संबोधन किया है कि वस्तु अनन्त धर्ममय है. उन सबको विस्तार पूर्वक नहीं कह सकते . तथापि प्रत्येक द्रव्य में प्रवचन का जाननेवाला पुरुष यथा संभावित धर्म को संयोजे - तथा - " क्रियावत्वं " ज्ञानादि गुण जो लोकालोक जानने के लिये प्रतिसमय प्रवर्तमान है तथा “ श्रीभाष्यकारे " ज्ञानादि गुण कारण और उसी गुण की प्रवृत्ति को क्रिया समझनी ऐसे कहा है; तथा देखना यह कार्य ऐसेही धर्मास्तिकायादि के सब गुण तीन परिणती से परिणामी है; इसतरह पंचास्तिकाय अर्थ क्रियाका कर्ता है; यह क्रियावानपना कहा । ta " पर्यायोपयोगिता " पर्याय का उपयोगीपना यह जीव का स्वभाव है; धर्म० अधर्म० आकाश० इन तीनों अस्तिकायों के प्रदेश कालसे अनादि अनन्त अवस्थितरूप है; पुद्गल का चलपना सदा-सर्वदा है; पुद्गल परमाणु तथा पुद्गल स्कंध संख्यात या असंख्यात काल पर्यंत एकक्षेत्र में रहसते हैं; पीछे अवश्य चलभाव को प्राप्त होते है; जीवद्रव्य सकर्मा संसारीपने क्षेत्रसे क्षेत्रान्तर; गमनभाव से भवान्तर गमनरूप चलपना है; उस जीवको सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग् चारित्र की प्रगटतासे परभाव भोगीना निवारण करके आत्मस्वरूप, निरधारनस्वरूप, भासनस्वरूप परिणमन होनेसे एकत्वस्वरूप, स्वधर्मकर्ता, स्वधर्मभोक्ता, सकल परभाव त्यागी, निरावरण, निःसंग, निरामय, निर्द्वद्व, निष्कलंक निर्मल, स्वयि अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र, अरूपी, अव्याबाध, परमानंदमय, सिद्धात्मा,
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy