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________________ भव्याभव्य स्वभाव. त्यागरूपोऽभव्यस्वभावः अभव्यत्वाभावे द्रव्यान्तरापत्तिः ॥ (८१) भव्यत्वाभावविशेषगुणानामप्रवृत्तिः अर्थ - भव्य तथा अभव्य स्वभाव कहते हैं. जीवाजीवादि सब द्रव्य परिणाम है. वे प्रतिसमय नवीन २ भाव को प्राप्त होते हैं. जहां पूर्व पर्याय का व्यय और उत्तर पर्याय का उत्पाद ऐसी जो परिणती उस का मुख्य कारण भव्य स्वभाव है. तत्वार्थ टीका में कहा है द्रव्यानुयोग भावधर्म से अर्थात् द्रव्य में - गुणपर्याय हैं. वे भव्य स्वभावी हैं. यह भवन धर्म हुवा ( सव्यापारैश्चभवनवृत्ति ) व्यापार सहित क्रियाको भवन धर्म कहते हैं. वस्तु के गुणपर्याय है वे भवन समयवस्थान रूप है अर्थात् नवीनता समप्राप्तरूप हैं. जैसे- विवक्षित पुरुष उठता हैं. फिर वही बैठता है. जागता है सोता है इत्यादि पर्याय प्रक्रिया पुरूष प्रत्ययि होती है. इसीतरह वृत्त्यन्तर अर्थात् पूर्वपर्याय का नाश उत्तरपर्याय का उत्पन्न होना उसको वृत्यन्तर कहते हैं. वृत्त्यन्तर व्यक्तिरूपपने उपदेशक है. उसको भवन धर्मकी प्रवृत्ति कहते हैं. नवीन उत्पन्न होना, अस्तिपने रहना, विपरीतरूप से परिगमन होना. या समर्थ धर्मसे वृद्धि होना, अपक्षियते = घटना, विनश्यति = विनाश होना, पिंड समुदाय, इससे अतिरिक्त गुणकी प्रवृत्यन्तर अवस्था के प्रगट होनेसे भवन धर्म होता है. भवनवृत्ति सव्यापार है किन्तु निर्व्यापार नहीं है। •
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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