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________________ ६६ उपासकाध्ययन शेष रह जाते हैं सावय धम्मदोहा और लाटीसंहिता । लाटीसंहिता तो स्पष्ट ही पं० आशाधरके बादकी है; क्योंकि उसकी प्रशस्ति में उसका रचनाकाल वि० सं० १६४१ दिया है। सावयधम्मदोहा उनसे पूर्वका है । आयेके तुलनात्मक विवेचनोंसे इसपर और भी प्रकाश पड़ सकेगा । इस प्रकार अष्टमूलगुणोंके अन्दर पाँच अणुव्रतोंके स्थानमें पांच उदुम्बर फलोंके त्यागको स्थान दिया गया और वह प्रचलित भी हो गया । किन्तु हिंसादिक पापोंमें और उदुम्बर फलोंमें तो बड़ा अन्तर है । कहाँ अहिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहका एकदेश त्याग करना और कहाँ पाँच उदुम्बर फलोंको त्यागना । ऐसा क्यों किया गया किसोने इसपर प्रकाश नहीं डाला । केवल रत्नमाला और सावयधम्म दोहा से इस सम्बन्ध में थोड़ा-सा प्रकाश पड़ता है। रत्नमाला में लिखा है । 9 "मथर्मासमधुस्यागसंयुक्ताणुव्रतानि नुः । अष्टौ मूळगुणाः पञ्चोदुम्बरैश्चार्मकेष्वपि ।। १९ ।।” मद्य मांस मधुका त्याग और पांच अणुव्रत ये आठ मूल गुण पुरुषके हैं । और पांच उदुम्बर और तीन मकारका त्याग ये आठ मूल गुण बच्चोंके हैं । सचमुच पुरुषोंके अष्टमूलगुण तो पुराने ही थे। बादके अष्टमूलगुण तो बच्चोंके ही उपयुक्त हैं । किन्तु जब धर्मसेवन में बड़े भी बच्चे बन गये तब तो बच्चेवाले मूल गुण ही सबके लिए हो गये और पुरुषोंवाले मूलगुण एकमतके रूपमें स्मृत किये जाने लगे । और वह परिस्थिति उत्पन्न हो गयी जिसका उल्लेख सावयवम्मदोहा में मिलता है । उसमें लिखा है, "मज्जु मंसु महु परिहरइ संपइ सावठ सोइ णोरुक्ख एरंड वणि किं या भवाई होइ ।। ७७ ।। ” अर्थात् जो मद्य, मांस और मधुका त्याग करे आजकल वही श्रावक है । क्या बड़ वृक्षोंसे रहित एरण्डके वनमें छह नहीं होती ? श्रावक कर्म आचार्य कुन्दकुन्दके प्राभूतमें तथा वरांगचरित और हरिवंशपुराण में दान पूजा तप और शीलको श्रावकका कर्तव्य बतलाया है। किन्तु आदिपुराणमें भगवज्जिनसेनाचार्यने लिखा है कि महाराज भरतने पूजा, वार्ता, दान, स्वाध्याय, संयम और तपको व्रती लोगोंका कुलधर्म बतलाया, "इयां वार्ता वदति व स्वाध्यायं संयमं तपः । श्रुतोपासक सूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् ॥ २४ ॥ कुळधर्मोऽयमित्येषा महत्पूजादिवर्णनम् । तदा भरतराजर्षिरन्ववोचदनुक्रमात् ||२५||” इस तरह उत्तरकालमें शीलका विश्लेषण वार्ता, स्वाध्याय और संयमके रूपमें हुआ या यह कहिए कि शीलका स्थान इन तीन चीजोंने लिया। इसके बाद वार्ताके स्थानमें गुरुसेवा आयी और देवपूजा, गुरुकी उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये प्रत्येक धावकके हैनिक षट्कर्म कहलाये, जैसा कि सोमदेव उपासकाचार और पद्मनन्दि पंचविशतिकामें लिखा है, १. रत्नमालाका यह उल्लेख दोनों प्रकारके अणुव्रतोंके समीकरणका एक प्रयास प्रतीत होता है । और ऐसा जान पड़ता है कि उसकी रचना मध्यकाल में उस समय हुई जब पाँच उदुम्बरवाले मूलगुण प्रचलित हो गये थे । २. "वार्ता विशुद्धवृत्या स्यात् कृष्यादीनामनुष्ठिति: । " विशुद्ध व्यवहारपूर्वक खेती आदि भाजीविकाके उपायोंके करनेको वार्ता कहते हैं ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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