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________________ प्रस्तावना शंकराचार्य के सर्ववेदान्त सिद्धान्तसारसंग्रह में इसी आशयका एक श्लोक है, " घटाभावे घटाकाशो महाकाशो यथा तथा । उपाध्यमावे स्वात्मैव स्वयं त्रह्मैव केवलम् ॥” ६९५ ॥ ३६ वेदान्ती लोग परम ब्रह्मके दर्शनसे समस्त भेदबुद्धिको उत्पन्न करनेवाली अविद्या के विनाशको मोक्षका कारण बतलाते हैं ऐसा सोमदेवने लिखा है । सो ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्यके चतुर्थ अध्यायमें निर्गुण परम ब्रह्मके साक्षात्कारसे मोक्षको प्राप्ति बतलायी है। शंकराचार्यका मत है, "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः" ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है, जीव ब्रह्मरूप है उससे भिन्न नहीं है । जगत्को मिथ्या प्रमाणित करने के लिए शंकराचार्यने जो मायावादका सिद्धान्त स्वीकार किया उसे बौद्धोंके शून्यवाद और विज्ञानवादको देन कहा जाता है । शंकराचार्यने ब्राह्मण धर्मकी प्रस्थानत्रयीसे जो तात्पर्य निकाला उसको प्रमाणित करने के लिए उक्त सिद्धान्तका आश्रय लिया । इस तरह बोद्धोंके शास्त्र के द्वारा उन्होंने श्रुतिप्रतिपादित धर्मका संरक्षण किया इसीसे उनके ऊपर प्रच्छन्न बोद्ध होनेका आरोप किया जाता है । उक्त सिद्धान्तकी आलोचना करते हुए सोमदेवने लिखा है कि यदि दृश्यमान जगत्का यह भेद अविद्याजन्य है तो जन्म, मरण सुख आदि विबतोंके द्वारा जो जगत् में वैचित्र्य दिखायी देता है वह कैसे है । तथा यदि केवल ब्रह्म ही है और कुछ भी नहीं है तो वह निस्तरंग क्यों नहीं है सांसारिक भेद-प्रभेद क्यों दृष्टि गोचर होते हैं। जैसे घटावरुद्ध आकाश आकाशमें मिल जाता है वैसे ही यह जगत् ब्रह्म में क्यों नहीं मिल जाता । वेदान्तियोंका मत है कि ब्रह्म एक है यद्यपि वह प्रत्येक व्यक्तिमें अलग-अलग दृष्टिगोचर होता है जैसे चन्द्रमा एक होनेपर भी पानीमें अनेक दृष्टिगोचर होता है । सोमदेवका कहना है कि चन्द्रमा आकाशमें एक दिखायी देता है और जल में अनेक दिखायी देता है, उस तरह ब्रह्म व्यक्तियोंसे भिन्न कहीं भी दष्टिगोचर नहीं होता । [ ७ ] कतिपय आनुषंगिक प्रसंग सांस्कृतिक आदान-प्रदान सोमदेवने अपने उपासकाध्ययनमें दर्शन और धर्मकी चर्चा करनेके साथ प्रसंगवश कुछ ऐसी बातोंका भी कथन किया है जिनका समाज व्यवस्थासे गहरा सम्बन्ध है और जिससे सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्योंके परस्पर आदान-प्रदान का पता चलता है। वास्तविकता यह है कि श्रावक गृहस्थ होनेके कारण समाजके मध्यमें रहता है । अतः उसे वैयक्तिक धर्मके साथ सामाजिकताको भी निभाना होता है । समाजमें सभी प्रकारके आदमी होते हैं। उन सबका भी निर्वाह करना होता है। इसके सिवा जैनधर्मके अनुयायियोंकी समाजको बहुसंख्यक अन्यधर्मावलम्बी समाजके भी सम्पर्क में रहना होता है; अतः उसके साथ भी निर्वाह करना आवश्यक होता है । और विभिन्न समाजोंके परस्पर सम्पर्क में आनेपर एकका दूसरेपर प्रभाव पड़ना भी स्वाभाविक है अतः समाज और धर्मके चिन्तकोंको इन सब बातोंपर दृष्टि रखकर कभी-कभी धर्म और समाज-व्यवस्थाके व्यावहारिक सिद्धान्तोंमें भी परिवर्तन और परिवर्धन करना पड़ जाता है, क्योंकि ऐसा किये बिना धर्म और समाजकी सुरक्षा सम्भव नहीं होती । समन्तभद्र स्वामीने लिखा है कि धार्मिकोंके बिना धर्मकी कोई स्थिति नहीं है । धार्मिकोंकी परम्पराके सुरक्षित रहनेसे ही धर्मकी परम्परा सुरक्षित रह सकती है । अत एव धर्मकी परम्पराको सुरक्षित रखनेके लिए धार्मिकोंकी परम्पराको सुरक्षित रखना आवश्यक है, और धार्मिकोंकी परम्पराको सुरक्षित रखनेके लिए १. 'न धर्मो धार्मिकैविना' रख० भा० ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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