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________________ उपासकाध्ययन बौद्ध मान्यताओंसे परिचित जनोंसे यह बात अज्ञात नहीं है कि बद्धके समयमें भी बौद्ध साधु मांस ग्रहण करते थे और उनके निमित्तसे गृहस्थ पशको मारकर मांस तैयार करते थे। किन्तु अन्य तीोके द्वारा इस बातकी आलोचना किये जानेपर बुद्धने त्रिकोटिपरिशुद्ध मांसको ही भिक्षुओंके लिए ग्राह्य करार दिया था। त्रिकोटिपरिशुद्धका मतलब है, अनदेखा, अनसुना और निःसन्देह । जिस पशुको अपने निमित्तसे मारा जाता देखा हो, या जिस पशके बारेमें यह कहा गया हो कि यह तुम्हारे लिए मारा गया है अथवा जिसके बारेमें यह सन्देह हो कि यह हमारे लिए मारा गया है, उस पशका मांस खाना वजित है। बादको स्वयं मरे हुए पशुका और किसी शिकारी पश-पक्षीके द्वारा मारे गये पशुका मांस भी ग्राह्य करार दिया गया। किन्तु हीनयान सम्प्रदायमें ही मांस ग्राह्य माना गया है। नहायान में मांसभक्षणका निषेध है। जैमिनीय दर्शन सोमदेवने लिखा है कि जैमिनीयोंका कहना है कि कोयले और अंजन वगैरहकी तरह स्वभावसे हो कलुषित चित्त कभी विशुद्ध नहीं होता। जैमिनिके अनुयायी जैमिनीय कहे जाते हैं । जैमिनिने बारह अध्यायोंमें कर्ममीमांसाकी रचना की थी। और बादरायणने चार अध्यायों में ब्रह्ममीमांसाकी रचना की थी। जैमिनिके अनुयायो मीमांसक कहे जाते हैं और उनको कर्ममीमांसाको पर्वमीमांसा कहते हैं। यज्ञ किस प्रकार करना चाहिए और वेदके अर्थका निर्णय करनेकी रीति क्या है ? इन प्रश्नोंका निर्णय करनेके लिए मीमांसादर्शन उत्पन्न हुआ था। जैमिनिके सूत्रोंपर शबरस्वामीने शाबरभाष्य ई० सन् ४०० के लगभग रचा था। यह शाबरभाष्य मीमांसाशास्त्रका वर्तमान आद्य मूलप्रस्थान ग्रन्थ माना जाता है। शाबरभाष्यके द्वारा प्रस्थापित मीमांसादशनके दो मुख्य विचारक हुए हैं, एक प्रभाकर और दूसरे कुमारिल भट्ट। कुमारिलने शाबरभाष्यके प्रथम अध्यायके प्रथम पादके ऊपर श्लोकवातिककी रचना को थी। इसमें ने समन्तभद्र के द्वारा आप्तमीमांसामें प्रस्थापित आत्माकी सर्वज्ञताका खण्डन किया है। उसका उत्तर अकलंक देवने तथा विद्यानन्दि और प्रभाचन्द्र आदिने दिया है। मीमांसा दर्शनमें वेदप्रतिपादित यज्ञोंके करनेसे स्वर्गादि फलको प्राप्ति मानी गयो है। मोमांसक ईश्वर- . वादी नहीं है। अतः वह जगतके प्रवाहको अनादि मानता है और जीवात्माका सद्भाव भी मानता है। आत्मा चेतन, व्यापक, नित्य, स्वयंकतत्व धर्मवाला है और कर्मके फलका भोक्ता है। धर्म अधर्मकी प्रवत्तिका रुक जाना और शरीरसे भिन्न आत्माका अस्तित्व रहना ही मोक्ष है। मोक्षमें ज्ञान सुख आदि नहीं रहते । अतः मीमांसा दर्शन जनोंकी तरह मुक्तिमें पूर्ण विशुद्धि नहीं मानता। इसीसे सोमदेवने उसकी समीक्षा करते हुए कहा है कि जहाँ स्वभावसे स्वभावान्तरकी उद्भूति हो सकती है वहां अपने योग्य कारणोंसे मलका क्षय भी किया जा सकता है जैसा कि मणि और मोती में देखा जाता है। जैमिनिकी ओरसे जो यह कहा गया है कि जैसे कोयला घिसनेपर भी सफेद नहीं होता वैसे ही स्वभाव. से मलिन आत्मा कभी निर्मल नहीं होता, इसका खण्डन करते हुए सोमदेवने यशस्तिलकके चौथे आश्वासमें लिखा है, १. सो० उपा०, पृ०३ ... २. "एवं यैः केवलं ज्ञानमिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः । सूक्ष्मातीतादिविषयं जीवस्य परिकल्पितम्" ॥१४१॥ -इलो० वा. "नते तदागमात् सिद्धेन्न च तेनागमो विना । दृष्टान्तोऽपि न तस्यान्यो नृषु कश्चित् प्रवर्तते" ॥ १४२ ॥-सो० उपा० श्लो० २८ ३. "एवं यस्केवलज्ञानमनुमानविजृम्भितम् । नते तदागमात् सिध्येन च तेन विनागमः ॥४२॥ सत्यमर्थवलादेव पुरुषातिशयों मतः । प्रभवः पौरुषेयोऽस्य प्रबन्धोऽनादिरिष्यते" ॥४१३॥ -न्यायविनि. ३ परि०।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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