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________________ प्रस्तावना ३५ ot किस दिशा में चली जाती है ?" जैसे तेलके समाप्त हो जानेपर दीपक बुझ जाता है उसी तरह मुक्त प्राणी जिनके द्वारा कहा जाता वे सब भी उसके साथ ही समाप्त जाते । पुनर्जन्म समाप्त हो जाता है और उसके साथ ही साथ सब कुछ समाप्त हो जाता है । सोमदेवने बौद्धोंके इस निर्वाणके खण्डनमें कहा है कि जब आत्मा अनेक जन्म धारण करनेपर भी नष्ट नहीं होता तो वह मुक्ति अवस्थामें कैसे नष्ट हो जाता है ? सोमदेवने बौद्धदर्शनकी एक अन्य मान्यता शून्यवादका भी निर्देश किया है । और उसके माननेवालोंको 'शाक्यविशेषा:' 'पश्यतोहरा : ' 'प्रकाशितशून्यतैकान्ततिमिराः', अर्थात् देखते हुए भी इस दृश्य जगत्को वस्तुओंको चुरा लेनेवाले और शून्यतैकान्तरूपी अन्धकारको प्रकाशित करनेवाले बौद्धविशेष कहा है । बौद्धदर्शनका एक भेद माध्यमिक शून्यतावाद है । नागार्जुनको माध्यमिक कारिका शून्यतावादी दर्शनका प्रमुख ग्रन्थ है । उसमें कहा है, "यः प्रतीत्यसमुत्पादः शून्यतां तां प्रचक्ष्महे । सा प्रज्ञप्तिरुपादाय प्रतिपत् सैव मध्यमा ॥ " टीकाकार चन्द्रकीर्ति अपनी टीकामें लिखता है, “ योऽयं प्रतीत्यसमुत्पादो हेतुप्रत्ययानपेक्ष्याङ्कुर विज्ञानादीनां प्रादुर्भावः स स्वभावेनानुत्पादः । यश्च स्वभावेनानुत्पादो भावानां सा शून्यता । एवं प्रतीत्यसमुत्पादशब्दस्य योऽर्थः स एव शून्यताशब्दस्यार्थः न पुनरभाव शब्दस्य योऽर्थः शून्यताशब्दस्यार्थः ।” अर्थात् प्रतीत्यसमुत्पादको ही शून्यता कहते हैं । हेतु और प्रत्ययको अपेक्षासे जो अंकुरादि और विज्ञानादिकी उत्पत्ति होती है वह वास्तवमें अनुत्पत्ति है और पदार्थोंका स्वभावसे अनुत्पन्न होना ही शून्यता है । माया अथवा स्वप्न या गन्धर्वनगरकी तरह सभी लौकिक पदार्थोंका अस्तित्व केवल आपेक्षिक है, वास्तविक नहीं समस्त मनुष्योंकी बुद्धिरूपी आँखें अविद्यारूपी अन्धकारसे खराब हो गयी हैं अतः उन्हें लौकिक पदार्थोंका अस्तित्व प्रतीत होता है । वास्तव में वे न अस्तिरूप हैं और न नास्तिरूप हैं । इसीसे इस दर्शनका नाम माध्यमिक दर्शन है इसमें अस्तित्व और नास्तित्वरूप दोनों दर्शनोंका प्रसंग नहीं है। कहा भी है, “अस्तीति शाश्वतग्राहो नास्तीत्युच्छेददर्शनम् । तस्मादस्तित्वनास्तित्वे नाश्रीयेत विचक्षणः ॥ " - माध्यमिक का० १५, १० । शून्यतावादका खण्डन करते हुए सोमदेवने लिखा है कि शून्यतावादको सिद्धि आप बिना प्रमाणके तो कर नहीं सकते । और जब आप यह प्रतिज्ञा करेंगे कि मैं प्रमाणसे शून्य तत्वको सिद्ध करता हूँ तब प्रमाणका अस्तित्व सिद्ध हो जाने से सर्वशून्यवाद समाप्त हो जायेगा । ऐसा प्रतीत होता है कि नैरात्म्यवाद और शून्यवाद जैसे वादोंने बौद्ध साधुओंको खान-पानकी ओरसे बिलकुल स्वच्छन्द बना दिया था । सोमदेवने अपने उपासकाध्ययनमें कहा है कि श्रुति, बौद्ध और शैव आगम मांस और मधुके सेवनके पक्ष में हैं । बौद्धोंके सम्बन्ध में खास तौरसे लिखा है कि वे खान-पान में किसी तरहका कोई परहेज नहीं करते। उन्हें 'तरसासवशक्तधीः' कहा है । मद्य, जैन ग्रन्थ भावसंग्रह (गा० ६८-६९) में भी बौद्धोंको मद्य-मांसका सेवी कहा है। योगशास्त्र (४-१०२ ) की टीका हेमचन्द्र ने भी बौद्धोंके कदाचारको आलोचना की है। जैन ग्रन्थकारोंने ही नहीं, किन्तु सोमदेवके समकालीन न्यायकुसुमांजलकार उदयनने भी यही बात लिखी है । १. श्लोक १७४ २. “संभवन्ति चैते हेतवो बौद्धाद्यागमपरिग्रहे । तथाहि - भूग्रस्तत्र कर्मलाघवमित्यलसाः । ...... माद्यनियम इति रागिणः । सप्तवटिका भोजनादिसिद्धे जविकेत्ययोग्याः " - । स्तत्रक २ ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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