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________________ -८८ ] ३०६ उपासकाध्ययन श्रुतस्य' प्रश्रयाच्छ्रयः समृद्धेः स्यात्समाश्रयः । ततो मनुजलोकस्य प्रसीदति सरस्वती ॥ ८३६ ॥ शारीरमानसागन्तुव्याधि संबाधसंभवे । साधुः संयमिनां कार्यः प्रतीकारो गृहाश्रितैः ॥ ८३७॥ तत्र दोषधातुमलविकृतिजनिताः शारीराः, दौर्मनस्यदुःस्वप्न साध्य सौदिसंपादिता मानसाः, शीतवाताभिघातादिकृता भागन्तवः । मुनीनां व्याधियुक्तानामुपेक्षायामुपासकैः । समाधिर्भवेत्तेषां स्वस्य नाधर्मकर्मता ||३८|| की रक्षा होती है और उनके होनेसे मन वशमें होता है। श्रुतकी विनय करनेसे कल्याण होता है, सम्पत्ति मिलती है और उससे मनुष्यपर सरस्वती प्रसन्न होती है ।। ८३४ -८३६ ॥ 1 1 भावार्थ - भोजन के समय मौन करनेसे जूठे मुँह वाणीका उच्चारण नहीं करना पड़ता । यह वाणीकी विनय है । इसके करनेसे वाणीपर असाधारण अधिकार प्राप्त होता है । जो लोग दिन-भर बकझक करते हैं उनके वचनकी कीमत जाती रहती है। दूसरा लाभ यह है कि माँगना नहीं पड़ता । माँगनेसे स्वाभिमानका घात होता है और न माँगनेसे उसकी रक्षा होती है। तथा अपनी इच्छा को रोकना पड़ता है और इच्छाका रोकना तप है अतः मौनसे तपकी वृद्धि होती है और मन वश में होता है, अतः मौनपूर्वक भोजन करना चाहिए । रोगी-मुनियोंकी परिचर्याका विधान मुनिजनों को शारीरिक, मानसिक या कोई आगन्तुक रोगादिककी बाधा होनेपर गृहस्थों को उसका प्रतीकार करना चाहिए || ८३७॥ वात, पित्त, कफ, रुधिरादि धातु और मलके विकार से जो रोग होते हैं उन्हें शारीरिक कहते हैं । मनके दूषित होनेसे, बुरे स्वप्नोंसे या भय आदिके कारणसे जो रोग होते हैं वे मानसिक हैं, ठण्ड वायु वगैरहके लग जानेसे जो आकस्मिक बाधा हो जाती है उसे आगन्तुक कहते हैं। इन बाधाओं को दूर करनेका प्रयत्न गृहस्थोंको करना चाहिए; क्योंकि रोगग्रस्त मुनियोंकी उपेक्षा करनेसे मुनियों की समाधि नहीं बनती और गृहस्थों का धर्म-कर्म नहीं बनता || ८३८|| भावार्थ - आशय यह है कि मुनियों को किसी तरह की बाधा होनेपर यदि गृहस्थ उसका निवारण न करें तो व्याधिग्रस्त होने के कारण मुनिजन ठीक रीतिसे आत्मसाधना नहीं कर सकते और चूँकि गृहस्थ अपने कर्तव्यपालनमें प्रमाद करते हैं अतः वे भी अपने धर्म-कर्मसे च्युत कहे जायेंगे या हो जायेंगे; क्योंकि धर्म तो मुनिजनोंके ही आश्रयसे चलता है । अतः गृहस्थों को रुग्ण साधुओंकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । १. " श्रयाधिकतया श्रुतस्य वे श्रेयसां च विभवस्य भाजनम् । संभवन्ति मनुजाः प्रसन्नतामेत्थतो भवभवे सरस्वती ॥८६॥ " - धर्मरत्ना०, प० १२८ । अमित० श्राव० १२ परि० १०१-११६ श्लो० । " अभिमानावने गृद्धिरोधात् वर्धयते तपः । मौनं तनोति श्रेयश्च श्रुतप्रश्रयतायनात् ।। ३५ ।। " - सागारधर्मा० अ०४ । २. वातपित्तश्लेष्म । ३. - साधि- आ० । “शरीराः ज्वरकुष्टाद्याः क्रोधाद्या मानसाः स्मृताः । आगन्तवोऽभिघातोत्थाः सहजाः क्षुत्तृषादयः ॥ ८८ ॥ " - धर्मरत्ना०, १० १२८ ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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