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________________ ३०८ सोमदेव विरचित [कल्प ४३, श्लो० ८३०. अतिथेयं 'स्वयं यत्र यत्र पात्रनिरीक्षणम् । गुणाः श्रद्धादयो यत्र दानं तत्सात्त्विकं विदुः ॥३०॥ उत्तमं सात्त्विकं दानं मध्यमं राजसं भवेत् । दानानामेव सर्वेषां जघन्यं तामसं पुनः ॥८३१॥ यहत्तं तदमुत्र स्यादित्यसत्यपरं वचः। गावः पयः प्रयच्छन्ति किन तोयतणाशनाः ॥३२॥ मुनिभ्यः शाकपिण्डोऽपि भक्त्या काले प्रकल्पितः । भवेदगण्यपुण्यार्थ भक्तिश्चिन्तामणिर्यतः ॥३३॥ अभिमानस्य रक्षार्थ विनयायागमस्य च । भोजनादिविधानेषु मौनमूचुर्मुनीश्वराः ॥८३४॥ लौल्यत्यागात्तपोवृद्धिरभिमानस्य रक्षणम् । ततश्च समवाप्नोति मनःसिद्धि जगत्त्रये ॥८३५॥ दानको तामस दान कहते हैं ॥२९॥ साविक दान जिस दानमें स्वयं पात्रको देखकर स्वयं उसका अतिथि-सत्कार किया जाता है तथा जो श्रद्धा वगैरहके साथ दिया जाता है उस दानको सात्त्विक दान कहते हैं ॥८३०॥ इन तीनों दानोंमें-से सात्त्विक दान उत्तम है, राजस दान मध्यम है और तामस दान सब दानोंमें निकृष्ट है ॥३१॥ जो दिया जाता है परलोकमें वही मिलता है, ऐसा कहना झूठ है । क्या पानी और घास खानेवाली गायें दूध नहीं देती हैं ? अतः मुनियोंको समयपर भक्तिपूर्वक दिया गया शाक-पात भी अपरिमित पुण्यका कारण होता है; क्योंकि भक्ति ही चिन्तामणि है ।।८३२-८३३॥ भावार्थ-सारांश यह है दानकी कीमत दिये जानेवाले द्रव्यकी कीमतसे नहीं आँकी जाती, किन्तु दाताकी श्रद्धा और भक्तिसे आँकी जाती है। बिना भक्तिके दिया गया खीरका भोजन भी व्यर्थ है और भक्तिपूर्वक दिया गया शाक-पात भी बहुफलदायी है। [अब भोजनके समय मौनका विधान करते हैं-] जिनेन्द्र भगवान्ने अभिमानकी रक्षाके लिए और श्रुतकी विनयके लिए भोजन वगैरहके समय मौन करना बतलाया है । भोजनकी लिप्साके त्यागनेसे तपकी वृद्धि होती है और अभिमान १. "अतिथेयं हितं यत्र"-सागारधर्मामृत, अ० ५-४७ को टीकामें उद्धृत । २. “यत्रातिथेयं स्वयमेव साक्षात् ज्ञानादयो यत्र गुणाः प्रकाशाः । पात्राद्यवेक्षापरता च यत्र तत्सात्त्विकं दानमुदाहरन्ति ॥७८॥"धर्मरत्ना० पृ. १२७ । ३. "दत्तं परत्रव फलत्यवश्यं नैकान्तिकं हन्त वचो यतोभिः (?) । गावः प्रयच्छन्ति न कि पयांसि तुणानि तोयान्यपि संप्रभुज्य ॥८२.। ये भक्तिसारविनताः किल शाकपिण्डं संकल्पयन्ति समयानुगुणं मुनिभ्यः । तेऽगण्यपुण्य-गुणसन्ततिसन्निवासाश्चिन्तामणिनिगदिताऽविचलाद् विभक्तेः ॥८३॥"धर्मरला. पृ० १२८ । ४. रक्षणे अ०, ज०, मु० ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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