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________________ -Cue] उपासकाध्ययन चिन्तामणित्रिदिवधेनुसुरद्रुमाद्याः पुंसां मनोरथपथप्रथितप्रभावाः । भावा भवन्ति नियतं तव देवि सम्यक्सेवाविधेस्तदिदमस्तु मुद्दे फलं ते ॥७४५ ॥ (- इति फलम् ) कलधौतकमलमौक्तिकदुकुलमणिजालचामरप्रायैः । श्राराधयामि देवीं सरस्वतीं सकलमङ्गलैर्भावैः ॥ ७४६ ॥ स्याद्वादभूधरभवा मुनिमाननीया देवैरनन्यशरणैः समुपासनीया । स्वान्ताश्रिताखिलकलङ्कहर प्रवाहा वागापगास्तु मम बोधगजावगाहा ॥ ७४७ || 'मूर्धाभिषिक्तोऽभिषवाज्जिनानामर्य्योऽर्चनात्संस्तवनात् स्तवार्हः । 'जपी जपायानविधेर बाध्यः श्रुताश्रितश्रीः श्रुतसेवनाच्च ॥७४८ || स्त्वं जिन सेवितोऽसि नितरां भावैरनन्याश्रयैः " स्निग्धस्त्वं न तथापि यत्समविधिर्भक्ते विरक्तेऽपि च । मच्चेतः पुनरेतदीश भवति प्रेमप्रकृष्टं ततः किं भाषे परमत्र यामि भवतो भूयात्पुनर्दर्शनम् ॥७४६ ॥ इत्युपासकाध्ययने श्रुताराधनविधिर्नाम चत्वारिंशत्तमः कल्पः । २८७ हे देवि ! आपकी विधिपूर्वक सेवा करनेसे मनुष्योंके मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले चिन्तामणिरत्न, कामधेनु और कल्पवृक्ष आदि पदार्थ नियमसे प्राप्त होते हैं अतः यह फल आपकी प्रसन्नता के लिए हो ||७४५॥ मैं स्वर्णकमल, मोती, रेशमी वस्त्र, मणियोंका समूह और चमर वगैरह मांगलिक पदार्थोंसे सरस्वती देवीकी आराधना करता हूँ ॥ ७४६ ॥ स्याद्वादरूपी पर्बतसे उत्पन्न होनेवाली, मुनियोंके द्वारा आदरणीय, अन्यकी शरणमें न जानेवाले देवोंके द्वारा सम्यक् रूपसे उपासनीय और जिसका प्रवाह अन्तःकरणके समस्त दोषों को हरनेवाला है, ऐसी वाणीरूपी नदी मेरे ज्ञानरूपी हाथीके अवगाहनके लिए हो, अर्थात् मैं ज्ञान द्वारा उस जिनवाणीका अवगाहन करूँ - उसमें डुबकी लगाऊँ ||७४७|| जिनभगवान् का अभिषेक करनेसे मनुष्य मस्तकाभिषेकका पात्र होता है, पूजा करनेसे पूजनीय होता है, स्तवन करनेसे स्तवनीय ( स्तवन किये जानेके योग्य) होता है, जपसे जप किये जानेके योग्य होता है, ध्यान करनेसे बाधाओंसे रहित होता है और श्रुतकी सेवा ( स्वाध्यायादि) करनेसे महान् शास्त्रज्ञ होता है ॥७४८|| हे जिनेन्द्र ! मैंने तुम्हारा दर्शन किया और जिनका अन्य आश्रय नहीं है ऐसे भावों से तुम्हारी अतिशय सेवा (पूजा) की । यद्यपि प्रभु राग-द्वेषसे रहित होनेके कारण निस्नेह ( स्नेहरहित ) हो, तथापि भक्तमें और विरक्त में तुम्हारा समभाव है अर्थात् जो तुम्हारी सेवा करता है। तुम्हें राग नहीं है और जो तुम्हारी सेवा नहीं करता, उससे द्वेष नहीं है । फिर भी मेरा यह चित्त हे स्वामिन् ! आपके प्रति प्रेमसे भरा है। अधिक क्या कहूँ अब मैं जाता हूँ । मुझे आपका पुनः दर्शन प्राप्त हो ॥ ७४६ ॥ इस प्रकार उपासकाध्ययनमें श्रु ताराधनविधि नामक चालीसवाँ कल्प समाप्त हुआ । १. राजा भवति । २. जप्यः स्यात् । ३. बाधारहितः । ४. पदार्थः अष्टप्रकारपूजनैः । वीतरागद्वेषत्वान्निः स्नेहः । ६. समता युक्तः मध्यस्थः । ५. त्वं
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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