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________________ २०६ सोमदेव विरचित [ कल्प ४०, श्लो० ७४१'यद्वीजमल्पमपि सज्जनधी धरायां लब्धप्रवृद्धिविविधानवधिप्रबन्धैः । 'सस्वैरपूर्वरसवृत्तिभिरेव रोहत्याच्चर्य गोचरविधि' प्रसवैर्भजे खाम् ॥७४९ ॥ (इति पुष्पम् ) यास्पष्टताधिकविधिः "परतन्त्रनीतिः प्रायः कलापरिगतापि मनः प्रसूते । स्पष्टं स्वतन्त्रमुपशान्तकलं च नृणां चित्रा हि वस्तुगतिरनॅविधैर्यजे ताम् ॥७४२॥ ( इति चरुम् ) वर्णभाजम् । दीपः ॥ ७४३॥ ( इति दीपम् ) एकं पदं बहुपदापि ददासि तुष्टा 'वर्णात्मिकापि च करोषि न सेवे तथापि भवतीमथवा जनोऽर्थी दोषं न पश्यति तदस्तु तवैष चतुः परं करणं कन्दरदूरितेऽर्थे मोहान्धकारविधुतौ परमः प्रकाशः । तद्भामगामिपथवीक्षणरत्नदीपस्त्वं सेव्यसे तदिह देवि जनेन धूपैः ॥ ७४४ ॥ ( इति धूपम् ) जिस जिनवाणीका छोटा-सा भी बीज सज्जनकी बुद्धिरूपी भूमिमें अनेक प्रकारके असीम वृद्धिंगत प्रबन्धोंके द्वारा और अपूर्व रससे युक्त फलोंके साथ उगता है, तथा जिसकी विधि आश्चर्यका विषय है उस जिनवाणीको मैं फूलोंसे पूजता हूँ ||७४१ ॥ जो शब्दरूप होनेसे नेत्रका विषय नहीं है अतएव अति अस्पष्ट है, तथा जो कण्ठ तालु आदि स्थानोंसे उत्पन्न होनेके कारण परतन्त्र है और मूर्तिसहित है- साकार है, उस वाणीको मनुष्यों का मन स्पष्ट स्वतन्त्र और शरीररहित प्रकट करता है । आशय यह है कि जिनवाणी श्रुत ज्ञानरूप है और श्रुतज्ञान अस्पष्ट होता है तथा श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशमके अधीन होनेसे परतन्त्र भी होता है । किन्तु केवलज्ञान होने पर वही वाणी स्पष्ट, स्वतन्त्र और निराकार रूपमें अवतरित होती है। सच है वस्तुओंकी गति बड़ी विचित्र है उस वाणीको मैं चरुसे पूजता हूँ ॥ ७४२ ॥ हे जिनवाणी माता ! आप बहुत पदवालो होनेपर भी सन्तुष्ट होनेपर एक पद देती हैं, वर्णात्मक होनेपर भी वर्ण प्रदान नहीं करतीं, इस तरह आप बहुत कृपण हैं, फिर भी मैं आपकी सेवा करता हूँ; क्योंकि अर्थी मनुष्य दोष नहीं देखता । यह विरोधाभास अलंकार है । इसका परिहार इस तरह है । द्वादशांग रूप जिनवाणी के पदोंकी संख्या एक सौ बारह करोड़ तेरासी लाख अट्ठावन हजार पाँच है । अतः वह बहुपदा है । और उसके द्वारा एक पद - अद्वितीय मोक्ष प्राप्त होता है। तथा वह जिनवाणी अक्षरात्मक है मगर आत्माको ब्राह्मणादि वर्गोंसे मुक्त कर देती है । अतः मैं उसे दीप अर्पित करता हूँ || ७४३ ॥ 1 देवि सरस्वती ! गुफा के समान इन इन्द्रियोंसे दूरवर्ती पदार्थको देखनेके लिए आप चक्षुके समान हैं, अर्थात् जो पदार्थ इन्द्रियोंके अगोचर हैं उन्हें जिनवाणीके प्रसादसे जा सकता है, और मोहरूपी अन्धकारको नष्ट करनेके लिए आप परम प्रकाशके तुल्य हैं । तथा मोक्ष महलको जानेवाले मार्गको दिखाने के लिए आप रत्नमयी दीपक हैं । इसलिए लोग धूपसे आपका पूजन करते हैं ||७४४॥ १. यस्या: बीजम् । २. फलैः । ३. आश्चर्येण गोचरा गम्या विधिर्यस्याः सा ताम् । ४. शब्दरूप - त्वान्नेत्राणामगम्या तथापि मनः आत्मा स्पष्टं प्रसूते प्रकटीकरोति । ५. अष्टस्थानापेक्षया । ६. मूर्तिसहिताऽपि । ७. चप्रकारः । ८. अद्वितीयं मोक्षम् । ९. अक्षरस्वरूपा । १०. विप्रादि । ११. करणान्येव कन्दराणि गुफा: तेषां कन्दराणां दूरे पदार्थे त्वं सरस्वती चक्षुः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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