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________________ -६६७ ] उपासकाध्ययन गुणान तज्ज्ञानं न सा दृष्टिर्न तत्सुखम् । यद्योगद्योतने न स्यादात्मन्यस्ततमश्चये ॥ ६६६॥ देवं जगत्त्रयीनेत्रं व्यन्तराद्याश्च देवताः । समं पूजाविधानेषु पश्यन् दूरं व्रजेदधः ॥६६७॥ ताः शासनाधिरक्षार्थ कल्पिताः परमागमे । २७३ 1 भावार्थ - छायानरका दृष्टान्त ग्रन्थकारने अन्य मतकी अपेक्षासे दिया जान पड़ता है । योगप्रदीपिका के अन्तर्गत उमामहेश्वर ( शिव-पार्वती) संवाद में छाया पुरुष लक्षण नामका पाँचवाँ पटल है । उसमें पार्वती शिवजीसे प्रश्न करती हैं कि भगवन् ! पापी मनुष्योंके पापसे मुक्त होनेका क्या उपाय है और कैसे मनुष्य अपनी मृत्युके कालका ज्ञान कर सकता है ? प्रायः मनुष्योंकी आयु अल्प होती है और योगाभ्यास तो अनेक वर्ष साध्य है, उसके करने में मनुष्य असमर्थ होते हैं । तब शिवजी बोले- यह बात बहुत गोपनीय है । पापी और भक्तिहीनको इसे नहीं बतलाना चाहिए । जो भक्त और सेवक हों उन्हें ही बतलाना चाहिए । शुद्ध मनसे आकाशमें अपने छायापुरुषको देखना चाहिए। उसके देखनेसे पापराशि नष्ट हो जाती है, और छह मास तक उसे देखनेसे कालका ज्ञान भी हो जाता है । तब पार्वतीने पुनः प्रश्न किया कि मनुष्यकी छाया तो जमीनपर पड़ती है उसे आकाशमें कैसे देखा जा सकता है ? और उसके देखने से कालका ज्ञान कैसे होता है ? तब शिवजीने कहा-देवि ! जब आकाश स्वच्छ हो, उसमें बादल वगैरह न हों, तब मनुष्य अपनी छाया की ओर मुख करके निश्चल खड़ा हो और अपने गुरुके द्वारा बतलायी गयी रीतिके अनुसार अपनी छायाको देखकर एकाग्रमनसे सामने आकाशको टकटकी लगाकर देखे | तो उसे वहाँ शुद्ध स्फटिकके तुल्य पुरुष दिखलायी देगा । यदि न दिखायी दे तो पुनः वैसा ही करे । बारम्बार ऐसा करनेसे निश्चय ही उसका दर्शन होता है। इसी कथनको दृष्टान्तके रूपमें उपस्थित करते हुए ग्रन्थकारने कहा है कि जैसे योगाभ्याससे आकाशमें छायापुरुषका साक्षात्कार हो सकता है उसी तरह अभ्यास से आत्माका भी साक्षात्कार हो सकता है । ऐसे कोई गुण हैं, न कोई ज्ञान है, न ऐसी कोई दृष्टि है और न ऐसा कोई सुख है जो अज्ञान आदि रूप अन्धकारके समूहका नाश हो जानेपर ध्यानसे प्रकाशित आत्मामें न होता अज्ञानरूप अन्धकारके नष्ट हो जानेपर ज्ञानादि सभी गुण I हो । अर्थात् ध्यानके द्वारा आत्मामें प्रकाशित हो जाते हैं ॥ ६९६ ॥ शासन - देवता की कल्पना [ कुछ व्यन्तरादिक देवता जिनशासन के रक्षक माने जाते हैं। कुछ लोग उनकी भी पूजा करते हैं। उसके विषय में ग्रन्थकार बतलाते हैं - ] जो श्रावक तीनों लोकोंके द्रष्टा जिनेन्द्र देवको और व्यन्तरादिक देवताओं को पूजाविधानमें समान रूपसे मानता है अर्थात् दोनोंकी समान रूपसे पूजा करता है वह नरकगामी होता है। ॥ ६९७ ॥ परमागममें जिनशासनकी रक्षा के लिए उन शासन-देवताओंकी कल्पना की गयी है १. अतिशयेन अधोगामी स्यात् । तेन कारणेन अन्यदेवता जिनसदृशा न माननीयाः, किन्तु जिनाद् हीना ज्ञातव्या इत्यर्थः । ३५
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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