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________________ २७२ सोमदेव विरचित अनुपायानिलो ग्रान्तं पुंस्तरूर्णा मनोदलम् । तद्भूमावेव भज्येत लीयमानं चिरादपि ॥ ६६२ ॥ ज्योतिरेकं परं वेषः' करीषाश्मसमित्समः । तत्प्राप्त्युपायदिङ्मूढा भ्रमन्ति भवकानने ॥६१३॥ परापरपरं देवमेवं चिन्तयतो यतेः । भवन्त्यतीन्द्रियास्ते ते भावा लोकोत्तरश्रियः ॥ ६६४ ॥ व्योम च्छायाऩरोत्सङ्गि यथामूर्तमपि स्वयम् । योगयोगात्तथात्माऽयं भवेत्प्रत्यक्षवीक्षणः ॥ ६६५॥ [ कल्प ३१, श्लो० ६९२ प्राप्ति के लिए जो-जो भाव रखते हैं वह वह भाव उसीमें लीन हो जाता है ॥ ६९१ ॥ पुरुषरूपी वृक्षों का मनरूपी पत्ता मोक्षके लिए जो उपायरूप नहीं है ऐसे मिथ्यादर्शन आदि रूप वायुसे सदा चंचल बना रहता है । किन्तु अर्हन्तरूपी भूमिमें पहुँचकर वह मनरूपी पत्ता टूटकर उसीमें चिरकालके लिए लीन हो जाता है ॥ ६९२ ॥ भावार्थ - पुरुष एक वृक्ष है और मन उसका पत्ता है। जैसे वायुसे पत्ता सदा हिलता रहता है वैसे ही नाना प्रकार के संसारिक धन्धों में फँसे रहनेके कारण मनुष्यका मन भी सदा चंचल बना रहता है । किन्तु जब मनुष्य मोक्षके उपायमें लगकर अपने मनको स्थिर करनेका प्रयत्न करता है और अर्हन्तका ध्यान करता है तो उसका मन उसीमें लीन होकर उसे अर्हन्त बना देता है और तब मनरूपी पत्ता टूटकर गिर पड़ता है क्योंकि अर्हन्त अवस्थामें भाव मन नहीं रहता । जैसे आग एक है किन्तु कण्डा, पत्थर और लकड़ीके रूपमें वह विभिन्न आकार धारण कर लेती है। वैसे ही आत्मा एक है किन्तु स्त्री, नपुंसक और पुरुषके वेषमें वह तीन रूप प्रतीत होती है । उस आग या आत्माकी प्राप्तिके उपायोंसे अनजान मनुष्य संसाररूपी जंगल में भटकते फिरते हैं। आशय यह है कि जैसे कण्डेसे आगका प्रकट होना कठिन है वैसे विकास होना कठिन है । जैसे पत्थरसे आग जल्दी प्रकट हो जाती है वैसे का विकास जल्द हो जाता है। और जैसे लकड़ीसे आगका प्रकट होना नपुंसक - शरीरमें आत्माका विकास अतिकठिन है ॥६६३॥ ही स्त्री- शरीर में आत्माका ही पुरुष - शरीरमें आत्माअतिकठिन है वसे ही ध्यान करता है उसके इस प्रकार जो मुनि पर और अपरसे भी श्रेष्ठ श्री अर्हन्तदेवका बड़े उच्च अलौकिक भाव होते हैं जिन्हें हम इन्द्रियोंसे नहीं जान सकते || ६९४ ॥ जैसे आकाश स्वयं अमूर्तिक है फिर भी पुरुषकी छायाके संसर्गसे शून्य आकाशमें भी पुरुषका दर्शन होता है वैसे ही यद्यपि आत्मा अमूर्तिक है फिर भी ध्यानके सम्बन्धसे उसका प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है ॥ ६९५ ॥ १. पृथक् वेषः ब. । आकारः पृथक् स्त्रीपुन्नपुंसकभेदात् । २. गोमयेऽग्निः शीघ्रं प्रकटो न स्यात्तथा स्त्रीषु आत्मा पारम्पर्येण प्रकटो भवति । पाषाणेऽग्निः शीघ्रं प्रकटः स्यात्तद्वत् पुंस्यात्मा । समिधिविषये शीघ्रं न स्यात्तद्वन्नपुंसके । ३. आत्मनः अग्नेश्च । ४. कश्चित् निमित्ती पुरुषः स्वशरीरछायालोकनं करोति । छायालोकनाभ्यासवशात् आकाशे शून्येऽपि नरो दृश्यते, तथा ध्यानाभ्यासात् आत्मा दृश्यते इत्यर्थः । 'निर गगनं देवि यदा भवति निर्मलम् । तदा छायामुखो भूत्वा निश्चलं प्रयतो धिया । स्वच्छायाकण्ठमालोक्य स्वगुरूक्तक्रमेण वै । सम्मुखं गगनं पश्येन्निषस्तथैकधीः ॥ शुद्धस्फटिकसङ्काशः पुरुषस्तत्र दृश्यते ।” – योगप्रदीपिकायां उमामहेश्वरसंवादे छायापुरुषलक्षणं नाम पञ्चमः पटलः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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