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________________ सोमदेव विरचित [कल्प ३६, श्लो० १६५७ मनारत भ्रमन्त्येते निजकर्मानिलेरिताः ॥६५॥ (इति विपाकः) इति चिन्तयतो धर्म्य यतात्मेन्द्रियचेतसः। तमांसि'द्रवमायान्ति 'द्वादशात्मोदयादिव ।।१८।। भेदं विवर्जिताभेदमभेदभेदवर्जितम् । ध्यायन्सूक्ष्मकियाशुद्धो निष्क्रिय योगमाचरेत् ॥६६॥ विलीनाशयसम्बन्धः शान्तमारुतसंचयः। देहातीतः परंधाम कैवल्यं प्रतिपद्यते ॥६६०॥ समान जीव सदा भ्रमण करते रहते हैं। इस प्रकार कोंके विपाक यांनी उदयका चिन्तन करनेको विपाकविचय धर्मध्यान कहते हैं ॥ ६५७ ।। भावार्थ-जैसे वायुके झोंकेसे धूल के कण उड़ते फिरते हैं वैसे ही अपने-अपने अच्छे या बुरे कर्मोके प्रभावसे जीव भी तीनों लोकोंमें सदा भ्रमण करते रहते हैं । अपने-अपने उपार्जन किये हुए कर्मके फलका जो उदय होता है उसे विपाक कहते हैं। वह विपाक प्रतिक्षण होता रहता है और अनेक रूप होता है। उसका विचार करना विपाकविचय धर्मध्यान कहा जाता है। धर्मध्यानका फल इस प्रकार अपनी इन्द्रियोंको और चित्तको संयत करके जो धर्मध्यान करता है उसका बज्ञान ऐसा विनष्ट होता है जैसे सूर्यके उदयसे अन्धकार नष्ट होता है ॥६५८ ॥ शुक्लध्यानका स्वरूप [धर्मभ्यानके बाद शुक्लध्यान होता है। अतः शुक्लभ्यानका स्वरूप बतलाते हैं-] अभेदरहित भेद अर्थात् पृथक्त्ववितर्क और भेदरहित अभेद अर्थात् एकत्ववितर्क शुक्लध्यानको करके जीव सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक ध्यानको करता है और फिर क्रियानिवृत्ति नामक चौथे शुक्लध्यानको करता है । इसके करते ही जात्मासे समस्त कमोंका सम्बन्ध छूट जाता है । श्वासोच्छ्वास रुक जाता है और अशरीरी आत्मा परंधाम-मोक्षको प्राप्त करता है ॥ ६५६-६६०॥ भावार्थ-जो ध्यान क्रियारहित इन्द्रियातीत जौर अन्तर्मुख होता है उसे शुक्लध्यान कहते हैं। कषायरूपी मलके क्षय होनेसे अथवा उपशम होनेसे अात्माके परिणाम निर्मल हो जाते हैं और उन परिणामोंके होते हुए ही यह ध्यान होता है, इस लिए आत्माके शुचि गुणके सम्बन्धसे इसे शुक्लध्यान कहते हैं। उसके चार भेद हैं-पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति और क्रिया निवृत्ति । इनमें-से पहलेके दो शुक्लध्यान उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणीवाले जीवोंके होते हैं और शेष दो शुक्लध्यान केवलज्ञानियोंके होते हैं। पहला शुक्ल १. विनाशम् । २. सूर्य। ३. पृथक्त्वम् । ४. एकत्वरहितम् । ५. एकत्वम् । ६. पृथक्त्वरहितम् । अनेन एकत्ववितर्कवीचाराख्यं शुक्लध्यानमुक्तम् । ७. अनेन सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिशुक्लध्यानमुक्तम् । ८. सकलयोगक्रियारहितं, अनेन समुच्छिन्नक्रियानिवर्तिध्यानमुक्तम् ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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