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________________ -६५६ ] उपासकाध्ययम 'अकृत्रिमो विचित्रात्मा मध्ये च सराजिमान् । मरुयीवृतो लोकः प्रान्ते तद्धामनिष्ठितः ॥ ६५६॥ २६५ ( इति लोकः ) रेणुवज्जन्तवस्तत्र तिर्यगूर्ध्वमधोऽपि च । भावार्थ - प्रकाशके रहते हुए अन्धकार नहीं ठहरता किन्तु युक्तिरूपी प्रकाशके रहते हुए भी मिथ्यात्वरूपी अन्धकार ठहरा हुआ है, यह आश्चर्य की बात है । परमागममें अनेक युक्तियोंसे यह प्रमाणित किया गया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ही दुःखोंसे छूटने का मार्ग है; किन्तु मनुष्यों के चित्तमें जो मिथ्यात्वरूपी अन्धकार छाया हुआ है उसके कारण वे रत्नत्रयको स्वीकार नहीं कर पाते और इसीसे उनका दुःखोंसे छुटकारा नहीं होता । हम उस दिनकी प्रतीक्षा में हैं जब इनका यह मिथ्यात्वरूपी अन्धकार दूर होगा और वे रत्नत्रय को अंगी - कार करेंगे । इस प्रकार सन्मार्गसे भ्रष्ट हुए मनुष्यों का उद्धार करनेके बारेमें जो चिन्तन किया जाता है उसे अपायविचय धर्मध्यान कहते हैं । लोकविचयका स्वरूप यह लोक अकृत्रिम है - इसे किसीने बनाया नहीं है। तथा इसका स्वरूप भी विचित्र हैकोई मनुष्य दोनों पैर फैलाकर और दोनों हाथ दोनों कूल्होंपर रखकर खड़ा हो तो उसका जैसा आकार होता है वैसा ही आकार इस लोकका है। उसके बीचमें चौदह राजू लम्बी और एक राजू चौड़ी साली है । सजीव उसी त्रसनाली मैं रहते हैं । यह लोक चारों ओरसे तीन वातवलयोंसे घिरा हुआ है । उन वातवलयोंका नाम घनोदधिवातवलय, घनवातवलय और तनुवातवलय है । वलय कड़ेको कहते हैं । जैसे कड़ा हाथ या पैरको चारों ओर से घेर लेता है। वैसे ही ये तीन वायु भी लोकको चारों ओरसे घेरे हुए हैं। इसलिए उन्हें वातवलय कहते हैं । तथा लोकके ऊपर उसके अग्रभाग में सिद्ध स्थान है, जहाँ मुक्त हुए जीव सदा निवास करते हैं । इस प्रकार लोकके स्वरूपका चिन्तन करनेको लोकविचय या संस्थानविचय धर्मध्यान कहते हैं ॥ ६५६ ॥ भावार्थ - लोकके स्वरूपका चिन्तन उसके आकारका चिन्तन किये बिना नहीं हो सकता, इसलिए उसे संस्थानविचयके नामसे भी पुकारा जाता है । शास्त्रान्तरोंमें यही नाम पाया जाता है । किन्तु यहाँ लोकविचय नाम दिया है, सो दोनोंमें केवल नामका अन्तर है वास्तविक अन्तर नहीं है । लोकका स्वरूप संक्षेपमें ऊपर बतलाया ही है । जो विशेषरूपसे जानना चाहें उन्हें त्रिलोकसार या त्रिलोक प्रज्ञप्तिसे जान लेना चाहिए । 1 विपाकविचयका स्वरूप उस लोकके ऊपर नीचे और मध्यमें सर्वत्र अपने कर्मरूपी वायुसे प्रेरित होकर धूलिके १. 'लोकसंस्थानस्वभावविचयाय स्मृतिसमन्वाहारः संस्थानविचयः । सर्वार्थसिद्धि । ज्ञानार्णव ३६ व प्रकरण । २. ' ततोऽग्रे शाश्वतं धाम जन्मजातकविच्युतम् । ज्ञानिनां यदधिष्ठानं क्षोणनिःशेषकर्मणाम् ॥ १८२ ॥ । ' - ज्ञानार्णव । ३. 'कर्मणां ज्ञानावरणादीनां द्रव्यक्षेत्रकालभवभावप्रत्ययफलानुभवनं प्रति प्रणिधानं विपाकविचयः । - सर्वार्थसि० ९,३६ । ज्ञानार्णव ३५व प्रकरण । ३४
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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