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________________ २५६ -६३६] उपासकाध्ययन 'अलाभः सङ्गितास्थैर्यमेते तस्यान्तरायकाः ॥६३५॥ यः कण्टकैस्तुदत्यङ्गं यश्च लिम्पति चन्दनैः । रोषतोषाविषिक्तात्मा तयोरासीत लोष्ठवत् ॥६३६।। आचरण न करना, तत्त्व और अतत्त्वको समान मानना, अज्ञानवश तत्त्वकी प्राप्ति न होना, योगके कारणोंमें मनको न लगाना, ये सब ध्यानके अन्तराय हैं ॥६३५॥ भावार्थ-ध्यान मनकी एकाग्रताके होनेसे होता है। और मन एकाग्र तभी हो सकता है या अपनी ओर तभी लग सकता है जब संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्ति हो, स्व और परके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान हो, पासमें थोड़ा-सा भी परिग्रह न हो, अन्यथा परिग्रहमें फंसे रहनेसे मन आत्मोन्मुख नहीं हो सकता, और चित्त भी स्थिर नहीं रह सकता । तथा भूख-प्यास वगैरहका कष्ट सहन करनेकी भी क्षमता होना जरूरी है, नहीं तो थोड़ा सा भी कष्ट होनेसे मनके अस्थिर हो उठनेपर ध्यान कैसे हो सकता है ? इसी तरह यदि मनमें अहङ्कार उत्पन्न हो गया तब भी मन आत्मोन्मुख नहीं हो सकता। इसलिए ऊपर ध्यानके लिए पाँच बातें आवश्यक बतलाई हैं। और कुछ बातें ध्यानकी बाधक बतलायी हैं। यदि मनमें या शरीरमें कोई पीड़ा हुई तो ध्यान करना कठिन होता है इसी तरह प्रमादी और आलसी मनुष्य भी ध्यान नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसे मनुष्य प्रायः आरामतलब होते हैं और आरामतलब आदमी शरीरको कष्ट नहीं दे सकता । जो सन्देह और विपरीत ज्ञानसे ग्रस्त हैं, जिन्हें यही निश्चय नहीं है कि आत्मा परमात्मा बन सकता है या ध्यान परमात्मपदका कारण है वे योगी बनकर भी योगकी साधना नहीं कर सकते, क्योंकि उनके चित्तमें यह सन्देह बरावर काँटेकी तरह कसकता रहता है कि न जाने इससे कुछ होगा या नहीं, यह सब बेकार न हो आदि । जो किसी लौकिक वाञ्छासे ध्यान करते हैं यदि उनकी वह वाञ्छा पूरी न हुई तो उनका मन ध्यानसे विचलित हो जाता है, और जो परिग्रही और अस्थिर चित्त हैं उनका मन भी एकाग्र नहीं हो सकता । इसलिए ये सब बातें ध्यानमें विघ्न करनेवाली हैं। ___ जो शरीरको काँटोंसे छेदे और जो शरीरपर चन्दनका लेप करे उन मनुष्योंपर रोष और प्रसन्नता न करके ध्यानी पुरुषको लोप्ठके समान होना चाहिए । अर्थात् जैसे लोढ़ेपर इन बातोंका कोई प्रभाव नहीं होता वैसे ध्यानीपर भी इन बातोंका कोई प्रभाव नहीं होना चाहिए और उसे दोनोंमें समबुद्धि रखनी चाहिए ॥६३६॥ आगेके श्लोक ६३७-६३९ में तान्त्रिक साधनाके अंगोंका उल्लेख करते हुए अन्धकारने उनका निषेध किया है । तान्त्रिकोंका कहना है कि इनके करनेसे मृत्युपर भी विजय प्राप्त हो जाती है । ग्रन्थकार इसे मूढ़बुद्धि पुरुषोंकी अपनेको और दूसरोंको ठगनेवाली नीति बतलाते हैं। इन तान्त्रिक अंगोंका विवेचन हमें ज्ञात नहीं हो सका, इस लिए हमने इन श्लोकोंका अर्थ भी लिखा नहीं है फिर भी कुछ प्रकाश डाला जाता है १. स्वपरयोरज्ञानादाभ्यन्तरत्वाप्राप्तिः अलाभः । तत्त्वज्ञाने सुख-दुःखसाधनोत्कर्षामर्षाभिनिवेशः संगिता। २. योगहेतूषु मनसो''अस्थैर्यम् । ३. योगस्य । 'स्वान्तास्थैर्य विपर्यासं प्रमादालस्यविभ्रमाः । रौद्रार्ताधियथास्थानमेते प्रत्यूहदायिनः ॥ १९२ ॥'-प्रबोधसार । ४. असंपृक्ताशयः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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