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________________ २५८ सोमदेव विरचित [कल्प ३६,श्लो० ६२६तथात्मजमिति ध्यानं सर्वत्राङ्गिनि नोद्भवेत् ॥६२६॥ तस्य कालं वदन्त्यन्तमुहूर्त मुनयः परम् । अपरस्पन्दमानं हि तत्परं' दुर्धरं मनः ॥६३०॥ तत्कालमपि तद्धयानं स्फुरदेकाप्रमात्मनि । उच्चैः कर्मोच्चयं भिन्द्याद्वजं शैलमिव क्षणात् ॥६३१॥ कल्पैरप्यम्बुधिः शक्यश्चलुकै!च्चुलुम्पितुम् । 'कल्पान्तभूः पुनर्वातस्तं मुहुः शोषमानयेत् ॥६३२।। "रूपे मरुति चित्ते च तथान्यत्र यथा विशन् । लभेत कामितं तद्वदात्मना परमात्मनि ॥६३३।। वैराग्यं ज्ञानसंपत्तिरसङ्गः स्थिरचित्तता। "ऊर्मिस्मयसहत्वं च पञ्च योगस्य हेतवः ॥६३४॥ "आधिव्याधिविपर्यासप्रमादा लस्य विभ्रमाः । ध्यानके आत्मासे जन्य होनेपर भी सभी प्राणियोंकी आत्माओंमें ध्यान उत्पन्न नहीं होता। अर्थात् जैसे रत्न विशिष्ट भूमिमें ही उपजते हैं वैसे ही किन्हीं विशिष्ट आत्माओंमें ही ध्यान करनेकी शक्ति प्रकट होती है। हरेक ध्यान नहीं कर सकता ॥६२९॥ मुनिजन उस ध्यानका काल अन्तर्मुहूर्त बतलाते हैं उतने काल तक मन निश्चल रहता है इससे अधिक समय तक मनको स्थिर रखना अत्यन्त कठिन है ॥६३०॥ किन्तु आत्मामें इतने समयके लिए भी होनेवाला निश्चल ध्यान महान् कर्मसमूहका उसी प्रकार भेदन करता है जैसे वज्र क्षण भरमें पहाड़को चूर्ण कर डालता है ॥६३१।। ठीक ही है सैकड़ों कल्पकालों तक चुल्लओंके द्वारा समुद्रके जलको सींचनेपर भी समुद्र खाली नहीं होता किन्तु प्रलयकालीन वायु उसे शीघ्र ही सुखा डालती है ।।६३२॥ __ जैसे किसी मूर्तिमें या देवतामें या चित्तमें या अन्य किसी बाह्य वस्तुमें मनको लगानेसे इष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है वैसे ही आत्माके द्वारा परमात्मामें मनको लगानेसे परमात्मपदकी प्राप्ति होती है ॥६३३॥ वैराग्य, ज्ञान सम्पदा, निष्परिग्रहता, चित्तकी स्थिरता तथा भूख-प्यास. शोक-मोह, जन्ममृत्युको तथा मदको सहन करना ये पाँच बातें ध्यानमें कारण हैं ॥६३४॥ मानसिक पीड़ा, शारीरिक रोग अतत्त्वको तत्त्व मानना, तत्त्वको समझनेमें अनादर करना, तत्त्वको प्राप्त करके भी उसपर १. अन्तर्मुहूर्तकालात्परम् । २. युगान्तरः । ३. प्रलयकालोत्पन्न । ४. समुद्रम् । ५. कामतत्त्वादो। ६. परकायप्रवेशादौ । ७. अन्यत्र बाह्ये वस्तुनि यथा वाञ्छितं भवति । ८. विषये वैतृष्ण्यम् । ९. ज्ञानं बन्धमोक्षोपायविवेकः । १०. बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहत्यागः । ११. 'शोकमोहो जरामृत्यू क्षुत्पिपासे षड्मयः ।'-श्री भागवतटोका । तपस्वाध्यायध्यानकर्मणि मनसोऽविचलितत्वम् । शारीरमानसागन्तुकपरीषहोनेकविजयित्वम् । 'निर्वदोदयसम्पतिः स्वान्तस्थैर्य रहःस्थितिः । विविधोमिसहत्वं तु साधूनां ध्यानहेतवः ॥१९१॥' -प्रबोधसार । 'संगत्यागः कषायाणां निग्रहो व्रतधारणम् । मनोऽक्षाणां जयश्चेति सामग्री ध्यानजन्मने ॥ ७५ ॥' -तत्त्वानुशासन। १२. दौर्मनस्यम् । १३. दोषवैषम्यम् । १४. अतत्त्वे तत्त्वाभिनिवेशो विपर्यासः । १५. तत्त्वावगमानादरः प्रमादः । १६. लब्धस्यापि तत्त्वस्याननुष्ठानमालस्यम् । १७. तत्त्वातत्त्वयोः समा बुद्धिर्विभ्रमः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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