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________________ २४२ सोमदेव विरचित [कल्प ३७, श्लो० ५३६नमदमरमौलिमण्डलविलमरत्नांशुनिकरगगनेऽस्मिन् । अरुणायतेऽधियुगलं यस्य स जीयाजिनो देवः ॥५६६॥ सुरपतियुवतिश्रवसाममरतरुस्मेरमअरीरुचिरम् । चरणनस्त्रकिरणजालं यस्य स जयताजिनो जगति ॥५६७॥ वर्ण: दिविजकुञ्जरमौलिमन्दारमकरन्दस्य न्दकरविसरसारधूसरपदाम्बुज वैदग्धीपरमपद प्राप्तवावजय विजितमनसिज, मात्रा यस्त्वाममितगुणं जिन कश्चित्सावधिबोधः स्तौति विपश्चित् । ननमसौ ननु काञ्चनशैलं तुलयति हस्तेनाचिरकॉलम् ॥५६८॥ स्तोत्रे यत्र महामुनिपक्षाः सकलैतिह्याम्बुधिविधिदक्षाः । मुमुचुश्चिन्तामनवधिबोधास्तत्र कथं ननु माडग्वेधाः ॥५६॥ तदपि वदेयं किमपि जिन त्वयि यद्यपि शक्तिर्नास्ति तथा मयि । यदियं भक्तिर्मा मौनस्थं देव न कामं कुरुते स्वस्थम् ॥५७०॥ चतुष्पदी 'सुरपतिविरचितसंस्तव दलिताखिलभव परमधामलग्धोदय । कस्तष जन्तुर्गुणगणमघहरचरण प्रवितनुतां हतनतमय ॥५७१॥ [ पूजनके पश्चात् जिन भगवान्की स्तुति करना चाहिए। अतः स्तुति करते हैं-] स्तुति नमस्कार करते हुए देवोंके मुकुटोंके समूहमें लगे हुए रत्नोंकी किरणोंके समूहरूपी इस आकाशमें जिनके चरणयुगल सन्ध्याकी लालीकी तरह प्रतीत होते हैं वे जिनदेव जयवन्त हों ॥५६६॥ जिनके चरणोंके नखोंकी कान्तिका समूह देवांगनाओंके कानों में धारण की गयी कल्पवृक्षकी पुष्पित लताके संस्पर्शसे सुन्दर प्रतीत होता है, वे जिन भगवान् जगत्में जयवन्त हों ॥५६७॥ । ___ देवेन्द्रोंके मुकुटोंमें लगे हुए मन्दार पुष्पके परागसे जिनके चरणकमल पाण्डुर हो गये हैं, जो पाण्डित्यके सर्वोत्कृष्ट स्थान हैं, जिन्होंने वादमें जयलाभ किया है, ऐसे कामजेता हे जिनेन्द्र देव ! . जो अल्पज्ञानी विद्वान् तुम्हारे अपरिमित गुणोंका स्तवन करता है, वह निश्चय ही जल्दीमें हायसे सुमेरु पर्वतको तोलनेका प्रयत्न करता है ॥५६८॥ समस्त शास्त्ररूपी समुद्रकी विधिमें चतुर, असीम ज्ञानधारी महामुनि भी जिसका स्तवन करनेमें समर्थ नहीं हो सके, मेरे समान अल्पज्ञानी उसका स्तवन कैसे कर सकते हैं ॥५६॥ हे जिन! यद्यपि मेरेमें आपका स्तवन करनेकी शक्ति नहीं है, तथापि कुछ कहता हूँ। क्योंकि मेरे मौन रहनेपर आपकी यह भक्ति मुझे स्वस्थ नहीं रहने देती ॥५७०॥ इन्द्रने जिसका स्तवन किया, जिसने समस्त संसार-परिश्रमणको नष्ट कर दिया, मोक्षके साथ ही जिसने आत्मिक गुणोंको प्राप्त किया, जिसके चरण पापके नाशक हैं, और जिसने विनत मनुष्यके भयको नष्ट कर दिया है ऐसे हे जिनेन्द्रदेव ! कौन प्राणी आपके गुणसमूहका विस्तारसे कथन कर सकता है ॥५७१॥ १. कर्णानाम् । २. प्रधान । ३. स्यन्दकारी विसरः प्रसारः । मन्दारपुष्पाणां समूह-प्रसारसारण धूसरः ईषत्पाण्डकृतः । ४. शीघ्रम् । ५. देव न म-अ.ज.।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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