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________________ -५६५ ] उपासकाध्ययन भक्तिर्नित्यं जिनचरणयोः सर्वसत्त्वेषु मैत्री सर्वातिथ्ये मम विभवधीर्बुद्धिरध्यात्मतत्त्वे । सद्विद्येषु प्रणयपरता चित्तवृत्तिः परार्थे भूयादेतद्भवति भगवन्धाम यावत्त्वदीयम् ॥५६१ ॥ प्रातर्विधिस्तव पदाम्बुजपूजनेन मध्याह्नसन्निधिरयं मुनिमाननेन । सायन्तनोऽपि समयो मम देव यायान्नित्यं त्वदाचरणकीर्तनकामितेन ॥५६२ ॥ धर्मेषु धर्मनिरेतात्मसु धर्महेतौ धर्मादवाप्तमहिमास्तु नृपोऽनुकूलः । नित्यं जिनेन्द्रचरणार्चनपुण्यधन्याः कामं प्रजाश्च परमां श्रियमाप्नुवन्तु ||५६३॥ [ इति पूजाफलम् ] श्रालस्याद्वपुषो हृषीकहरणैर्व्याक्षेपतो वात्मन श्वापल्यान्मनसो मतेर्जडतया मान्द्येन वाक्सौष्ठवे । यः कश्चित्तव संस्तवेषु समभूदेष प्रमादः स मे मिथ्या स्तान्ननु देवताः प्रणयिनां तुष्यन्ति भक्त्या यतः ॥५६४ ॥ देवपूजामनिर्माय मुनीननुपचर्य च । यो भुञ्जीत गृहस्थः सन् स भुञ्जीत पर तमः ॥ ५६५॥ इत्युपासकाध्ययने स्नपनार्चनविधिर्नाम षट्त्रिंशः कल्पः । मांगलिक द्रव्योंसे आराधना करता हूँ || ५६० ॥ २४१ [ इस प्रकार पूजा समाप्त हुई। आगे पूजाका फल बतलाते हैं-] पूजाफल हे भगवन् ! जबतक इस चित्तमें आपका निवास है तबतक सदा जिनभगवान् के चरणों में मेरी भक्ति रहे, सब प्राणियोंमें मेरा मैत्रीभाव रहे, मेरी ऐश्वर्यरत मति सबका आतिथ्य सत्कार करने में संलग्न हो, मेरी बुद्धि अध्यात्म तत्त्वमें लीन रहे, ज्ञानीजनोंसे मेरा स्नेह भाव रहे और मेरी चित्तवृत्ति सदा परोपकारमें लगी रहे || ५६१॥ हे देव ! प्रातःकालीन विधि आपके चरण-कमलोंकी पूजा से सम्पन्न हो, मध्याह्न कालका समागम मुनियोंके आतिथ्यसत्कार में बीते; तथा सायंकालका भी समय आपके चारित्रके कथन और कामनामें व्यतीत हो ॥५६२ ॥ धर्मके प्रभावसे राज्यपदको प्राप्त हुआ राजा धर्मके विषय में, धार्मिकोंके विषयमें और धर्मके हेतु चैत्यालय आदिके विषयमें सदा अनुकूल रहे - उनका अहित न करके संरक्षण करे । तथा प्रतिदिन जिनेन्द्र देवके चरणों की पूजासे प्राप्त हुए पुण्यसे धन्य हुई जनता यथेच्छ उत्कृष्ट लक्ष्मीको प्राप्त करे ॥ ५६३॥ शरीर के आलस्य से या इन्द्रियोंके इधर-उधर लग जानेसे अथवा आत्माकी अन्यमनस्कतासे अथवा मनकी चपलतासे अथवा बुद्धिकी जड़तासे अथवा वाणी में सौष्ठव ( शुद्ध स्पष्ट उच्चारण) की कमी के कारण आपके स्तवनमें मुझसे जो कुछ प्रमाद हुआ है, वह मिथ्या हो । क्योंकि देवता तो अपने प्रेमियोंकी भक्ति से सन्तुष्ट होते हैं ॥ ५६४ ॥ जो गृहस्थ होते हुए भी देवपूजा किये बिना तथा मुनियोंकी सेवा किये बिना भोजन करता है, वह महापापको खाता है ||५६५|| इस प्रकार उपासकाध्ययनमें अभिषेक, पूजन विधि नामका छत्तीसवाँ कल्प समाप्त हुआ ॥ ३६ ॥ १. धार्मिकेषु । २. चैत्यालय - मुनि शास्त्र संघेषु । ३. नृपः अनुकूलो हितो भवतु । ४. पापम् । ३१
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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