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________________ २३२ सोमदेव विरचित [कल्प ३५, श्लो० ५२१येषामने मलयजरसैः संगमः कर्दमैर्वा स्त्रीविग्बोकैः पितवनचिताभस्मभिर्वा समानः । मित्रे शत्रावपि च विषये निस्तरङ्गोऽनुषा स्तेषां पूजाव्यतिकरविधावस्तु भूत्यै हविर्वः ॥५२१॥ योगाभोगाचरणचतुरे दीर्णकन्दर्पद ... स्वान्ते ध्वान्तोद्धरणसविधे ज्योतिरुन्मेषभाजि'। संमोदेतामृतभृत इव क्षेत्रनाथोऽन्तरुच्चै येषां तेषु क्रमपरिचयात्स्याच्छूिये वः प्रदीपः ॥५२२॥ येषां ध्येयाशयकुवलयानन्दचन्द्रोदयानां बोधाम्भोधिः प्रमदसलिलैर्माति नात्मावकाशे । लब्ध्वाप्येतामखिलभुवनेश्वर्यलक्ष्मी निरीह चेतस्तेषामयमपंचितौ श्रेयसे वोऽस्तु धूपः ॥५२॥ 'चित्तेचित विशति करणेष्वन्तरात्मस्थितेषु स्रोतस्यूते (१) बहिरसिलतो व्याप्तिशून्ये च पुंसि । येषां ज्योतिः किमपि परमानन्द संदर्भगर्भ जन्मच्छेदि प्रभवति फलैस्तेषु कुर्मः सपर्याम् ॥५२४॥ वाग्देवतावर इवायमुपासकानामागामितत्फलविधाविव पुण्यपुः। लक्ष्मीकटारे मधुपागमनैकहेतुः पुष्पाञ्जलिर्भवतु तच्चरणार्चनेन ॥५२५॥ जिनके शरीरमें लगाया गया चन्दनका लेप या कीचड़, स्त्रीका विलास या स्मशानकी राख, सब समान है, तथा मित्र और शत्रु दोनोंके ही विषयमें जो सम भाव रखते हैं अर्थात् मित्रको देखकर जिनका हृदय प्रेमसे उद्वेलित नहीं होता और न शत्रु को देखकर द्वेषसे भड़क उठता है, उनकी पूजाके लिए अर्पित किया गया नैवेद्य हमारी विभूतिका कारण हो ॥५२१॥ जिनका अन्तःकरण अनेक प्रकारके योगोंका पालन करनेमें दक्ष हो चुका है, तथा कामका मद भी जाता रहा है और मोह रूपी अन्धकार नष्ट होनेके करीब है, ज्ञानरूपी ज्योति प्रगट ही होना चाहती है, अतएव जिनका अन्तरात्मा चन्द्रमाकी तरह खूब आह्लाद युक्त है, उनके चरणोंमें अपित किया गया दीपक हमारी लक्ष्मीका कारण हो ॥५२२॥ ध्येयसे युक्त मनरूपी कुवलय (नीलकमल और पृथ्वीमण्डल ) के लिए चन्द्रोदयके समान जिन आचार्योंका ज्ञानरूपी समुद्र हर्षरूपी जलके द्वारा आत्मारूपी स्थानमें समाता नहीं है, इस समस्त लोककी ऐश्वर्य लक्ष्मीको प्राप्त करके भी जिनका चित निरीह है, उनकी पूनामें अर्पित की गयी धूप हमारे कल्याणके लिए हो ॥५२३॥ चित्तके चित्तमें और इन्द्रियोंके अन्तरात्मामें लीन हो जानेपर तथा इन्द्रियोंके पुंज स्वरूप पुरुषके समस्त बाह्य पदार्थों से निर्विकल्प हो जाने पर जिनकी परमानन्दमयी कोई एक अनिर्वचनीय ज्योति जन्म-परम्पराका छेदन करनेमें समर्थ होती है उनकी हम फलोंसे पूजा करते हैं ॥५२४॥ सरस्वती देवीके वरके समान और भविष्यमें प्राप्त होनेवाले फलके लिए पुण्य समूहके १. विलासः । २. आशयः । ३. नैवेद्यम् । ४. विदारित । ५. समीपे । ६. प्रादुर्भाव । ७. पूजायाम् । ८. चैतन्यरूपे । ९. बाह्यप्रपञ्चरहिते पुंसि इत्यर्थः । १०. रचना। ११. कटाक्षा एव भ्रमराः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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