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________________ १८० सोमदेव विरचित [कल्प २६, श्लो० ३६४क्रमथुन्यपोहाय सगरागारद्वारपंदिरे मनायलम्बत । तत्र च पुराप्रयुक्तपरिणयापायनीतिविश्वभूतिः प्रगल्भमतये शिवभूतये रुचियाय शिष्याय रहितरहस्यमुद्रकं सामुद्रकमशेषविदुषविचक्षणो व्याचक्षाणो बभूव । परामर्शवशाशीतिः शिवभूतिस्तं न्यक्षलक्षणपेशलं मधुपिङ्गलमवलोक्य-'उपाध्याय, घनघृताहुतिवृद्धिमद्धामशालिनि ज्वालामालिनि दह्यता. मेतदेति स्वाध्यायो यदेवंविधमूर्तिरप्ययमीहगवस्थाकीर्तिः' । सदाचारनिगृहीतिर्विश्वभूतिःअपर्याप्तपूर्वापरसंगीते शिषभूते, मागाः खेदम्, यदेष नृपवरस्य सगरस्य निदेशादस्मदुपदेशादनन्यसामान्यलावण्यविनिवासां सुलसामलभमानस्तपस्वी तपस्वी समभूत् । . एतच्चासन्नारिष्टतातेर्विश्वभूतेर्वचनमेकायनमनाः स यतिर्निशम्य प्रवृद्धक्रोधानलः कालेन "विपद्योत्पद्य चासुरेषु कालासुरनामा भवप्रत्ययमाहात्म्यादुपजातावधिसन्निधिस्तपस्याप्रपञ्चमसुरान्वयोदञ्च चात्मनो विनिश्चित्य यदीदानीमेव महापराधनगरं सगरमकारणप्रकाशितदोषजाति विश्वभूतिं च चूर्णपेषं पिनष्मि, तदानयोः सुकृतभूयिष्ठत्वात्प्रेत्यापि' सुरश्रेष्ठत्वावाप्तिरिति न साध्वपराधः स्यात् । ततो यथेहानयोबहुविडम्बनावरोधो वधः, परत्र च दुःखपरम्परानुरोधो भवति, तथा विधेयम् । न चैकस्य बृहस्पतेरपि कार्यसिद्धिरस्ति' इत्यभिआया। कई दिनसे उपवास होनेके कारण उसके हृदयका उत्साह मन्द पड़ गया था और तेज घामसे उसका शरीर अत्यन्त खिन्न था। अतः चातककी तरह थकान दूर करनेके लिए सगर राजाके महलके द्वार-मण्डपपर थोड़ी देरके लिए ठहर गया । वहाँ समस्त विद्वानोंमें प्रवीण विश्वभूति, जिसने पहले सुलसाका सगरके साथ विवाह कराने में दुर्नीतिका प्रयोग किया था, अपने प्रिय शिष्य बुद्धिशाली शिवभूतिको खुले तौरपर सामुद्रिक विद्याका व्याख्यान दे रहा था । विचारचतुर शिवभूतिने समस्त लक्षणोंसे युक्त मधुपिंगलको देखकर अपने गुरुसे कहा-'गुरुजी ! घीकी आहुतिसे प्रज्वलित अम्निमें इस सामुद्रिक विद्याको जला देना चाहिए; क्योंकि इस प्रकारके लक्षणोंसे युक्त होनेपर भी इस आदमीकी यह अवस्था है।' सदाचारका शत्रु विश्वभूति बोला--'पूर्वापर सम्बन्धसे अनजान शिवभूति ! खेद मत करो, क्योंकि राजा सगरकी आज्ञासे और हमारे कहनेसे असाधारण सुन्दरी सुलसाको न पा सकनेके कारण यह बेचारा तपस्वी हो गया है।' विश्वभूतिका अमङ्गल निकट था। अतः उसकी बात उस एकाग्रमन तपस्वीने सुन ली । सुनते ही उसकी क्रोधाग्नि भड़क उठी और वह मरकर कालासुर नामका देव हुआ। वहाँ उसे भवप्रत्यय नामका अवधिज्ञान प्राप्त हुआ। उसके द्वारा उसने अपने पूर्व भवका सब वृत्तान्त जान लिया । तब वह सोचने लगा कि यदि मैं इसी समय महा अपराधी सगरको और दुष्ट विश्वभूति को पीस डालूँगा तो पुण्य अधिक होनेसे ये दोनों मरकर भी देव हो जायेंगे और यह प्रतिशोध ठीक नहीं होगा। इसलिए ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि इनका वध भी कष्टसे हो और ये मरकर परलोकमें भी बहुत दुःख उठा सके। किन्तु अकेले तो बृहस्पतिका भी काम सिद्ध नहीं हो १. श्रमदूरीकरणाय । २. प्राङ्गणे । ३. शास्त्रोपदेशयोग्याय विदुषे । ४. गोप्यरहितम् । ५. अग्नी । ६. सम्बन्ध । ७. दीनः । ८. अमङ्गल । ९. एकाग्रमनाः । १०. मृत्वा । ११. विस्तारम् । १२. उद्भवम् । १३. मृत्वा । १४. नृपमन्त्रिणोः द्वयोः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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