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________________ उपासकाध्ययन १७३ -३७४ ] सत्यघोषः, त्वमेव च परमनिस्पृहमनीषः, यत्तव चेतसि वचसि च न मनागप्यन्यथाभावः समस्ति' इति प्रतीतिमिः पारितोषिकप्रदानपुरःसरप्रकृतिभिस्तत्तदोपयिकोपचितिवसतिभिश्च भणितिभिस्तमखिलब्रह्मस्तम्बस्तिभीविज़म्भमाणगुणस्तोत्रं भद्रमित्रं कथंकारं न श्लाघयामास। पुनरदूरीशिवतातिं श्रीभूति निखिललोकलपनालवालमूलकोली तालताश्रयशाखिनं न्युब्जाननं निसर्गेण हरिणीसमच्छायमपि महासाहसानुष्ठानात्सूर्मीसमानकायमनल्पवैलक्ष्यस्फुटदास्वनितमतीवभयाविभूतोत्पंथवेपथुस्तिमितमवेक्ष्य बह्वाक्षेपम् , 'श्राः° सोमपायिनामपक्तिय' वैधेय', विश्वासघातपातकप्रसव श्रोत्रियकितव दुराचार प्रवर्तितनूनरलापहार, कुसिककुलपांसन, बकानुष्ठानसदन, साधुजनमनःशेकुँनिबन्धनायातनुतन्त्रीजालमिव खलु तवेदं यज्ञोपवीतम् । असदाचारावधिक वेदवैवधिक', सद्धर्मधामध्यामलताविधानाय विश्वभोजः समेधैर्न, अकृत्यचैत्य वात्योमात्य जरायमदूतिकोपैतिक दुर्गतिक, किमात्मनो न पश्यसि चर्मितरुत्वचमिवातिप्रवृद्धविश्रो वात्योन्माथशिथिलितां,' प्रभातप्रदीपिकामिवास्तासन्नजीवितरविमङ्गच्छवि येनाधावियोधसि पयसि वर्तमान इव चेष्टसे । तदिदानीं यदि घनाभिघारघोरतेजसि विश्ववेदसि निक्षिप्यसे, तदा चिरोपचितदुराचारप्रहस्य स तवाचिरदुःखदायिपरिग्रहोऽनुग्रहो इव । ततो द्विजापसद, कदाचित्त्वयेदमतिवास्तवमें सत्यघोष हो, तुम ही अत्यन्त निस्पृही हो; क्योंकि तुम्हारे मन और वचनमें जरा भी छलछिद्र नहीं है।' इस प्रकारके वचनोंके द्वारा, पारितोषिक वगैरहके द्वारा तथा उस समयके योग्य अन्य उपायोंके द्वारा राजाने सबके द्वारा प्रशंसित भद्रमित्रकी बहुत-बहुत सराहना की। बेचारा अभागा श्रीभूति नीचा मुख किये हुए खड़ा था । यद्यपि वह स्वभावसे ही देखने में हरिणीके समान दीन था तथापि उसने बड़ा साहस किया था और उसके कारण वह ऐसा प्रतीत होता था मानो लोहेकी कोई मूर्ति है। उसके मुखपर असीम लज्जा बोलती थी। भयके कारण वह थर-थर काँप रहा था। उसे देखकर राजा बड़े तिरस्कारके साथ बोला-'ब्राह्मण कुल कलंक, मूर्ख, विश्वासघाती, जुएके द्वारा नये-नये रत्नोंको अपहरण करनेवाले, बगुला भगत ! तुम्हारा यह यज्ञोपवीत साधु पुरुषोंके मनरूपी पक्षियोंको फंसानेके लिए बड़ा भारी ताँतका जाल है। अरे दुराचारी, वेदोंके भारवाही ! समीचीन धर्मरूपी मन्दिरको मलिन करनेवाले, कुकर्मके घर, दुष्ट मन्त्री ! क्या तुम वृद्धताके कारण भोजवृक्षकी छालकी तरह शिथिल हुए और तेज हवा के झोंकेसे बुझनेके उन्मुख हुए प्रभातकालीन दीपककी तरह अथवा अस्त होनेके उन्मुख हुए सूर्यकी तरह अपने शरीरकी दशाको नहीं देखते हो, जिससे अब भी ऐसी चेष्टाएँ करते हो मानो तुम युवा हो। अतः अब यदि तुम्हें खूब जलती हुई अग्निमें डाल दिया जाये तो यह तुम्हारे जैसे पुराने पापीपर अनुग्रह ही होगा; क्योंकि इससे तुम थोड़ी ही देर तक दुःख उठा सकोगे। इसलिए नीच ब्राह्मण ! या तो तुम्हें अत्यन्त दुर्गन्धित गोबरसे भरे हुए तीन प्याले खाने चाहिये, या १. ब्रह्माण्ड । २. समीपाऽमंगलम । ३. मख । ४. जनापवाद । ५. अधोमखम। ६. स्वर्णप्रतिमा। हप्रतिमा। ८. उन्मार्ग। ९. कम्पेना-प्रस्वेदितम। १०. खेदे । ११. पंक्तिरहित । १२. निर्भाग्य । १३. ब्राह्मणकुलदूषण । १४. पक्षिबन्धनार्थम् । १५. मर्यादक । १६१. भारवाहक । १७. अग्नेः । १८. इन्धन । १९. गृह । २०. निकृष्टमंत्रिन् । २१. जरा एव यमदूती। २२. जार । २३. भूर्जपत्रवत शिथिलशरीरचर्म । २४. जरा एव वात्या । २५. यौवने । २६. घृत । २७. अग्नौ । २८. अथवा ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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