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________________ १७२ सोमदेव विरचित [कल्प २७, श्लो० ३७४यतस्तं दिवसमादिं कृत्वा सकलमपि परिवत्सरदलमेकवाक्यव्याहाराकुण्ठपाठकठोरकण्ठनालः । तद्विचारयेयं तावदचिरकालं 'शारविशारहृदयाम्बुजस्य एतत्क्रीडाव्याजेन मन्त्ररन्तःकरणम्। अम्बिके, स्वयापि 'पतदेवनावसरे यद्यहमेनमनेककुचराचारनिचितचित्तमतिबाहुकुकुटिचेष्टितं बकोटवृत्तमुदन्तजातं पृच्छामि, यद्यचास्य कटकोर्मिकांशुकादिकं जयामि, तत्तदेवाभिमानीकृत्य मृगीमुखव्याघ्रीसमाचारकुट्टनी श्रीदत्ता भटिनी तिम्तिणीकातरुभाजोऽस्य वणिजो विषमरुचिमरीचिसंख्यासंपन्नानि" रत्नानि याचयितव्या इति निपुणिकायाः कृतसंगीतिः श्वस्येऽहनि' 'सदैव मदीयहृदयानन्ददुन्दुभे दुन्दुभे, त्वयापि भगवत्या साधु विजृम्भितव्यम्, यद्यस्य चिञ्चापुरुषस्यास्ति सत्यता' इत्यध्येष्य" तथैवाचरिताचरणा शतशस्तत्तदभिज्ञानशापनानुबन्धतन्त्रात्तत्कलत्रान्मणीनुपप्रणीय" राक्षः समर्पयामास। स राजाद्भुतांशी स्वकीयरत्नराशौ तानि संकीर्य आकार्य चैनमासन्नलक्ष्मीकल्पलताविलासनन्दनं वैदेहकनन्दनम्, 'अहो वणिक्तनय, यान्यत्र रत्ननिचये तव रत्नानि सन्ति तानि त्वं विचिन्त्य गृहाण' इत्यभाणीत् । भद्रमित्रः 'चिरत्राय ननु दिष्टेया वर्धेऽहम्' इति मनस्यभिनिविश्य' 'यथादिशति विशांपतिः' इत्युपादिश्य विमृश्य च तस्यां माणिक्यपुऔर निजान्येव मनाग्विलम्बितपरिचयचिरत्नानि रत्नानि समग्रहीत् । ततः स नरवरः सपरिवारः प्रकामं विस्मितमतिः 'वणिक्पते, त्वमेवात्रान्वर्थतः जैसा ही है। क्योंकि उस दिनसे लेकर पूरे छह माह तक यह एक ही बात चिल्लाता है। अतः इतक्रीडाके शौकीन श्रीभूतिके साथ द्यूतक्रीडाके बहानेसे उसके मनकी बात शीघ्र जाननी चाहिए । जुआ खेलते समय मैं उस अनाचारी बगुला भगतसे जो-जो बात पूछू तथा जो उसके कंकण, अँगूठी, वस्त्र वगैरह जीतूं उन सबको प्रमाणरूपसे उपस्थित करके तुम्हें उस मृगीके समान मुख किन्तु सिंहनीके समान आचरणवाली कुटनी श्रीदत्तासे इमलीके वृक्षपर चढ़े हुए इस वणिक्के सात रत्न माँग लाने चाहिए।' - इस प्रकार निपुणिकाको समझाकर दूसरे दिन रानीने हे मेरे हृदयको आनन्द देनेवाले पाशदेवता ! यदि इस इमलीके वृक्षवाला मनुष्य सच्चा है तो तुम्हें भी उसमें सहायता करनी चाहिए ऐसी प्रार्थना करके वैसा ही किया और बार-बार जुएमें जीते हुए पदार्थोंको प्रमाण रूपसे उपस्थित करके श्रीभूतिकी पत्नीसे रत्न माँग लिये तथा उन्हें राजाको दे दिया । राजाने उन रत्नोंको अपने अद्भुत रत्नोंमें मिलाकर उस वणिक-पुत्रको बुलाया और कहा--'वणिक-पुत्र ! इन रत्नोंमें-से जो रत्न तुम्हारे हों उन्हें चुनकर ले लो।' 'चिरकालके बाद मेरा भाग्योदय हुआ है' ऐसा मनमें सोचकर भद्रमित्र बोला- 'जो आज्ञा महाराज ।' चूंकि रत्नोंको देखे हुए बहुत दिन हो गये थे इसलिए उन्हें चुननेमें थोड़ा समय लगा। किन्तु उसने विचारकर उन रत्नोंमें-से अपने रत्नोंको खोज लिया। यह देखकर सपरिवार राजाको बड़ा आश्चर्य हुआ। वह बोला-'वणिक्पति ! तुम ही १. वर्षाढ़ । २. आलाप । ३. अमन्द । ४. द्यूतक्रोडा । ५. सचिवस्य । ६. द्यूतक्रीडन । ७. कुत्सित । ८. माया । कुक्कुटि-आ० । ९. कंकण-मुद्रिका-वस्त्रादिकं । १० कुटनीति भाषायाम् । ११. सप्ताचिः संख्यानि । १२. संकेतः । १३. आगामिनि दिने । १४. प्रार्थ्य। १५. आनीय। १६. किरणे। १७. मिश्रीकृत्य । १८. देवोद्यानम् । १९. चिराय । २०. पुण्येन । २१. अभिप्रायं कृत्वा । २२. समूहे। २३. मनाग विलम्बितपरिचयेन चिरत्नः कालक्षेपो येषु रत्नेषु तानि चिरत्नानि ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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