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________________ १६४ सोमदेव विरचित [कल्प २६, श्लो० ३६२तदलमत्र बहुप्रलापेन । कल्पद्रुमेण कल्पलतेव त्वमनेन देवदेयदेहरक्षाविधानेन धवेन सार्धमाकल्पमिन्द्रियैश्वर्यसुखमनुभव' इति संभाविताशीर्वादा तमेकं मोदकमास्वाद्य पत्युः पथि प्रेतस्थे। ___एवं विहितदुरीहितवशादुपाचामिततोकशोकावस्थे दर्शमीस्थे तस्मिञ्श्वशुरे श्वश्रूजने च सति स पुरातनपुण्यमाहात्म्यादुल्लवितघोरप्रतिघंपञ्चकापत्प्रतिदिनमुदीयमानसंपदेकदा तेन विश्वम्भरेण तितीश्वरेण निरीक्षितः। तद्रूपसंपत्तौ जातबहुविस्मयेन तनूजया सह उभयेन विशामाधिपत्यपदेन योजितश्च । गुणपालः किंवदन्तीपरम्परया अस्य कल्याणपरम्परामुपश्रुत्य कौशाम्बीदेशात्पमार्वतीपुरमागत्य अनेनाश्चर्यैश्वर्यभाजा तुजी सह संजग्मे । अथान्यदा सकलत्रपुत्रमित्रतन्त्रेण धनकीर्तिना दर्शनायागतयानङ्गसेनया चानुगतिनिष्ठो गुणपालश्रेष्ठी मतिश्रुतावधिमनःपर्ययविषयसम्राजमखिलमुनिमण्डलोराजं श्रीयशोध्वजनामभाजं भगवन्तमभिवन्ध सबहुप्रश्रयमेवमपृच्छत्–'भगवन् , किं नाम जन्मान्तरे धर्ममूर्तिना धनकीर्तिना सुकृतमुपार्जितम्, येन बालकालेऽपि तानि तानि दैवैकशरणप्रतीकाराणि व्यस. नानि व्यतिक्रान्तः, येनास्मिन्न्यतिरिक्तरसारूपसंपन्नोऽभूत, येनाद भ्राभ्रियविभावसुप्रभासंभार इव देवानामप्यप्रतिहतमहः समजनि, येन चापरेषामपि तेषां तेषां महापुरुषकक्षा"वग्रहाणां गुणानां समवायोऽभवत् । तथा हि-स्थानं "वदन्यतायाः, समाश्रयो वदान्यही यह गढ़ा खोदा था । अब रोनेसे क्या होता है ? कल्पवृक्षके साथ कल्पलताके समान तू अपने इस दैवरक्षित पतिके साथ कल्पकाल तक ऐश्वर्य और इन्द्रिय सुखको भोग ।' ऐसा आशीर्वाद देकर उसने भी एक जहरीला लड्डू खा लिया और पतिकी अनुगामिनी बन गयी। __इस प्रकार पूर्व उपार्जित पुण्यके प्रतापसे पाँच भयानक विपत्तियोंसे बचकर धनकीर्ति अपने ही द्वारा की गयी दुर्भावनाओंके कारणसे सास और श्वसुरके चल बसनेपर प्रतिदिन सम्पत्तिशाली होने लगा। एक दिन राजा विश्वम्भरने उसे देखा। उसका सौन्दर्य देखकर राजाको बहुत अचरज हुआ। उसने उसके साथ अपनी पुत्रीका विवाह कर दिया और उसे वैश्योंका अधिपति बना दिया । धनकीर्तिके पिता गुणपालने लोगोंके मुखसे जब अपने पुत्रके अभ्युदयका समाचार सुना तो वह कौशाम्बी नगरीसे उज्जयिनी आकर आश्चर्यजनक सम्पत्तिशाली पुत्रसे मिला । एक बार मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ज्ञानके धारी श्री यशोध्वज मुनिराज वहाँ पधारे । गुणपाल सेठ, सकुटुम्ब धनकीर्ति और उससे मिलनेके लिए आयी हुई अनंगसेनाके साथ मुनिराजके दर्शनके लिए गया, और उन्हें नमस्कार करके विनयपूर्वक बोला—'भगवन् ! धर्ममूर्ति धनकीर्तिने पूर्व जन्ममें कौन-सा पुण्य कमाया था, जिसके कारण बचपनमें भी यह उन कष्टोंको पार कर गया जो दैवके द्वारा ही दूर किये जा सकते थे तथा इस जन्ममें इसने बड़ी भारी सम्पत्ति और सौन्दर्य पाया, सूर्यके तेजकी तरह देवोंसे भी न रोका जा सकनेवाला इसे तेज प्राप्त हुआ । इसके सिवाय महापुरुषोंके योग्य अन्य भी गुण इसे प्राप्त हो सके । जैसे, यह बड़ा दानी १. कान्तेन । २. दत्त । ३. मृता इत्यर्थः। ४. मृते । ५. विघ्न । ६. एको विवाहोत्सवो द्वितीयः श्रेष्ठिपदप्रदानोत्सवः। ७. धनकीर्तेः। ८. उज्जयिनीम् । ९. पुत्रेण । १०. सम्मिलितः। ११. जन्मनि । १२. अधिक। -क्तसाररूप-आ० । १३. बहुल । १४. अभ्रपटलसम्बन्धि अग्नितेजःसमूहवत् । वजाग्निवत् । १५. तेजः। १६. पक्षवशानां । १७. विदग्धतायाः। १८. वदति दीयतामिति वदान्यः । त्यागी।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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