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________________ १५८ सोमदेव विरचित [कल्प २६, श्लो० ३६२प्रियसुहवः श्रीवत्तस्य वणिक्पतेनिकेतने समणिमेखलकलत्रं कलत्रमवस्थाप्य स्वापतेयसारं दुहितरं चात्मसात्कृत्य सुलभकेलिवनवनाशयनिवेशं कौशाम्बीदेशमयासीत् । . अत्रान्तरे श्रीमहरिद्रमन्दिरनिर्विशेषमाचरितचर्यापर्यटनौ शिवगुप्तमुनिगुप्तनामानौ मुनी श्रीदत्तप्रतिनिवेशनिवासिनोपासकेन यथाविधिविहितप्रतिग्रही कृतोपचारविग्रहौ च तामगणाश्रयां धनश्रियमपश्यताम् । तत्र मुनिगुप्तभगवान्किल केवलखलिस्नानपरुषवपुषमुद्गमनीयसंगतानाभोगविषमवैधव्यचिह्नदवरकमात्रालंकारजुषमाप्तकान्तापत्यपरिजनविरहदेहसादां गर्भगौरवखेदां च शिशिराजस्रवाञवशवर्तिनी स्थलकमलिनीमिव मलिनच्छविमुदवसितंपरिसरे परगृहवास'विशीर्यमाणमुखश्रियं धनश्रियं निध्याय' 'अहो, महीयसां खलु एनसामावासः कोऽप्यस्याः कुक्षौ महापुरुषोऽवतीर्णः, येनावतीर्णमात्रेणापि दुष्पुत्रेणेयं वराकी इयदावेशां दशामशिश्रयत्' इत्यभाषत । मुनिवृषा शिवगुप्तः–'मुनिगुप्त मैवं भाषिष्ठा यतो यद्यपीयं श्रेष्ठिनी कानिचिदिनान्येवम्भूता सती "पराधिष्ठाने तिष्ठति, तथाप्येतनन्दनेन सकलवणिक्पतिना राजश्रेष्ठिना निरवधिशेव धीश्वरेण विश्वम्भरेश्वरसुतावरेण च भवितव्यम्' इत्यवोचत् । एतच्च स्वकीयमन्दिरालिन्दगतः श्रीदत्तो निशम्य 'न खलु प्रायेणासत्यमिदमुक्तं भविष्यति महर्षेः' इत्यवधार्य सूचीमुखसर्पवहरीहितदत्तचेतोवृत्तिरासीत् । धनश्रीश्च परिप्रिय मित्र श्रीदत्त सेठके घरमें रखा और पुत्रीको साथ लेकर बाग-बगीचोंसे शोभित कौशाम्बीपुरीको चला गया। इसी बीचमें धनी और गरीबके मकानका भेद न करके चर्याके लिए भ्रमण करते हुए शिवगुप्त और मुनिगुप्त नामके दो मुनि श्रीदत्तके मकानके सामनेसे निकले । श्रीदत्तके पड़ोसमें रहनेवाले गृहस्थने उन्हें विधिपूर्वक पड़गाहा । और जब वे भोजन कर चुके तो आँगनमें बैठी हुई धनश्रीपर उनकी दृष्टि पड़ी। तेलके बिना स्नान करनेसे उसका शरीर रूक्ष हो गया था, केवल दो वस्त्र और सधवाके चिह्न स्वरूप बहुत थोड़े अलंकार पहने हुए थी, पति पुत्री और परिजनोंके वियोगसे उसका शरीर खेद खिन्न था, गर्भके भारसे पीड़ित थी, शीतऋतुके निरन्तर आगमनसे कुम्हलायी हुई स्थलकमलिनीकी तरह उसकी कान्ति मलिन हो गयी थी, दूसरेके घरमें रहनेसे मुखकी शोभा चली गयी थी। घरके आँगनमें बैठी हुई धनश्रीको इस रूपमें देखकर मुनिगुप्त मुनि बोले-'इसकी कोखमें कोई बड़ा पापी महापुरुष आया जान पड़ता है, जिसके गर्भ में आने मात्रसे इस वेचारीकी यह दुर्दशा हुई है।' यह सुनकर शिवगुप्त मुनि बोले-'मुनिगुप्त ! ऐसा मत कहो। यद्यपि यह सेठानी कुछ दिन तक इस तरह पराये घरमें रहेगी, फिर भी इसका पुत्र समस्त वैश्योंका स्वामी और अपार सम्पत्तिशाली राजश्रेष्ठी होगा तथा राजा विश्वम्भरकी पुत्रीको वरण करेगा।' यह बात अपने मकानके बाहर चबूतरेपर खड़े श्रीदत्तने सुनी। 'मुनियोंका कथन झूठा १. कलत्रं जघनं भार्या च । २. धनम् । ३. जलाशय । ४. सधननिर्धनगृहसमचित्त । ५. शुबलवस्त्रयुक्ता अंगत्वक् यस्याः । ६. दिन । ७. गृहाङ्गणे । ८. म्लान । ९. दृष्ट्वा । १०. मुनिश्रेष्ठः । ११. परगृहे । १२. निधि । १३. उसरकगतः।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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