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________________ उपासकाध्ययन निमित्ताध्यायमें लिखा है, “पमिनी राजहंसाच निर्ग्रन्थाश्च तपोधनाः । यं देशमुपसर्पन्ति सुमिक्षं तत्र निर्दिशेत् ॥" "कमलिनी, राजहंस और निर्ग्रन्थ तपस्वी जिस देशमें पाये जाते हैं वहाँ भिक्ष होता है।" इस तरह सोमदेवने राजा यशोधरके द्वारा जैनधर्म और उसके अनुयायी दिगम्बर साधुओं तथा देवोंकी प्राचीनता तथा मान्यताके सम्बन्धमें जैनेतर ग्रन्थोंसे प्रमाण उपस्थित कराये हैं। ... आगे और भी लिखा है कि उर्व, भारवि, भवभूति, भर्तृहरि, भर्तृ मेण्ठ, कण्ठ, गुणाढय, व्यास, भास, बोस, कालिदास, बाण, मयूर, नारायण, कुमार, माघ, राजशेखर आदि-महाकवियोंके काव्योंमें और भरतप्रणीत काम्याध्यायमें तथा सर्वजनप्रसिद्ध उन-उन उपाख्यानोंमें दिगम्बरसम्बन्धी इतनी महती प्रसिद्धि क्यों पायो जाती ( यदि दिगम्बर कलिमें उत्पन्न हुए होते तो)। उक्त प्रमाण विशेष प्राचीन तो नहीं है। वराहमिहिरका समय पांचवीं-छठी शताब्दी है। और सम्भवतया उक्त उद्धरणों में वही सबसे प्राचीन है। किन्तु उस समय प्राचीन इतिहासको खोज और अध्ययनका चलन आजको तरह सार्वजनिक रूपसे नहीं था, अतः उक्त प्रमाणोंसे जैन धर्म और जैन साधनोंकी सार्वजनिक मान्यता और विश्रुतिपर ही प्रकाश पड़ता है। हां, उक्त कवियोंने अपने किन-किन ग्रन्थों में जैनोंका उल्लेख किया है, यह अवश्य अन्वेषणीय है। इस प्रकार माताके द्वारा जैन धर्मपर किये गये आक्षेपोंका परिहार करते हुए यशोधर जैन साधुओंपर किये गये आक्षेपोंके उत्तरमें कहता है, "माता ! तुमने कहा था कि जैन साधु खड़े होकर भोजन करते हैं तो इसका कारण यह है कि, जबतक खड़े होनेकी शक्ति है और जबतक दोनों हाथ आपसमें मिलते हैं तबतक ही मुनि भोजन करते हैं । जिस धर्म में बालको नोक बराबर भी परिग्रहके होनेपर उत्कृष्ट निष्परिग्रहत्वका निषेध किया है, उस धर्मके अनुयायी मुमुक्षुओंकी मति वस्त्र, चर्म या वल्कलमें कैसे हो सकती है ? रही शौचकी बात, सो मुनिगण कमण्डलुको सहायतासे बराबर शौच करते हैं। किन्तु अंगुलिमें सर्पके काट लेनेपर कोई अपनी नाक नहीं काट डालता, अर्थात् जो अंग अपवित्र होता है उसीकी शुद्धि की जाती है । जैन लोग उसीको आप्त मानते हैं जिनमें रागादि दोष नहीं होते । जिस धर्ममें मद्यादिका नाम लेना भी बुरा है, शिष्टजन उस धर्मकी निन्दा कैसे कर सकते है ?" इसके पश्चात् यशोधर मद्य, मांस सेवनका विरोध तथा मद्य, मांस और मधुके प्रयोगको बुराई बतलाते हुए शास्त्रप्रमाण उपस्थित करता है, "तिलसर्षपमा यो मांसमझनाति मानवः । स श्वभ्रान निवर्तेत यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥" "जो मनुष्य तिल या सरसोंके बराबर भी मांस खाता है वह जबतक आकाशमें चांद और सूरज है तबतक नरकसे नहीं निकल सकता। स्मतिमें कहा है, "सप्तग्रामेपु यत्पापमग्निना भस्मसास्कृते । तस्य चेतद्भवेत् पापं मधुबिन्दुनिषेवणात् ॥" "अग्नि के द्वारा सात गांवोंको जलानेपर जितना पाप होता है उतना हो पाप मधुकी एक बूंदके खानेसे होता है।" इसके पश्चात् यशोधर वेदके प्रामाण्यपर आक्षेप करता है। पुत्रको बातोंको सुनकर यशोधरकी माता पुनः पुत्रको अपनी बात मनवानेकी प्रेरणा करते हुए कहती है, "राजा लोग अपनी लक्ष्मी और जीवनकी रक्षाके लिए पुत्र, मित्र, पिता और बन्धु-बान्धवों तकको मार डालते हैं। क्षमाशील राजाओंका राज्य
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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