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________________ प्रस्तावना गृहस्थोंका धर्म साधुका धर्म नहीं हो सकता और साधुका धर्म गृहस्थका धर्म नहीं हो सकता । कहा भी है, "विमत्सरः कुचैलाङ्गः सर्वद्वन्द्वविवर्जितः । समः सर्वेषु भूतेषु स यतिः परिकीर्तितः ॥ आपस्नानं व्रतस्नानं मन्त्रस्नानं तथैव च । आपस्नानं गृहस्थस्य व्रतमन्त्रैस्तपस्विनः ॥ न स्त्रीभिः संगमो यस्य यः परे ब्रह्मणि स्थितः । तं शुचिं सर्वदा प्राहुर्मारुतं च हुताशनम् ॥" ___ "जो दूसरोंसे द्वेष नहीं रखता, कुत्सित वस्त्रको तरह जिसका शरीर मलिन है, जो सब प्रकारके द्वन्द्वोंसे अछूता है, तथा सब प्राणियोंमें समभाव रखता है उसे यति कहा है। स्नानके तीन प्रकार हैं, जलस्नान, मन्त्रस्नान और व्रतस्नान । गृहस्थ जलस्नान करता है और तपस्वी व्रत और मन्त्रोंके द्वारा स्नान करते हैं । जिसका स्त्रियोंके साथ संगम नहीं है तथा जो परब्रह्म में लोन है उस पुरुषको और वायु तथा अग्निको सर्वदा शुचि कहा है।" तथा ज्योतिषांगमें कहा है, "समग्रं शनिना दृष्टः क्षपणः कोपितः पुनः । तद्भक्तस्तस्य पीडायां तावेव परिपूजयेत् ॥" "किसीका शनि सप्तम स्थानमें हो और क्षपण-दिगम्बर साधु यदि कुपित हो जाये तो शनिके भक्तको शनिकी पीड़ामें शनिको ही पूजा करनी चाहिए और क्षपणके भक्तको क्षपणकी पूजा करनी चाहिए।" प्रजापतिके द्वारा प्रतिपादित चित्रकर्म शास्त्रमें कहा है, "श्रमणं तैललिप्ताङ्गं नवनिर्मित्तिभिर्युतम् । यो लिखेत् स लिखेत् सर्वा पृथ्वीमपि ससागराम् ॥" "जो चित्रकार तेलसे लिप्त अंगवाले श्रमणका नवों भित्तियोंसे युक्त चित्र बनाता है वह सागरसहित समस्त पृथ्वीका चित्र बनाता है।" तथा आदित्यमतमें अर्थात् सूर्यसिद्धान्तमें लिखा है, "भवबीजाङ्कुरमथना अष्टमहाप्रातिहार्यविभवसमेताः । ते देवा दशतालाः शेषा देवा भवन्ति नवतालाः ॥" . "संसारके बीजभूत मोहनीय कर्मके अंकूररूप राग-द्वेषका क्षय करनेवाले और आठ महाप्रातिहार्यरूप ऐश्वर्यसे सहित अर्हन्त देवको प्रतिमा दशताल प्रमाण होती है और शेष देवताओंकी मूर्तियाँ नौताल प्रमाण होती है।" . . -... --- ..आचार्य वराहमिहिरकृत प्रतिष्ठाकाण्डमें लिखा है, "विष्णोर्भागवता मयाश्च सवितुर्विप्रा विदुब्रह्मणां मातणामिति मातृमण्डलविदः शम्भोः समस्मा द्विजाः । शाक्याः सर्वहिताय शान्तमनसो नग्ना जिनानां विदुः ये यं देवमुपाश्रिताः स्वविधिना ते तस्य कुर्युः क्रियाम् ॥" "भागवत विष्णुको प्रतिष्ठा करते हैं, सूर्यभक्त शाकद्वीपीय ब्राह्मण सूर्यको प्रतिष्ठा करते हैं, ब्राह्मण ब्रह्मको प्रतिष्ठा करते हैं, मात-मण्डलके भक्त सात माताओंकी प्रतिष्ठा करते हैं, भस्म रमानेवाले द्विज शिवकी प्रतिष्ठा करते हैं, बौद्ध बुद्धको प्रतिष्ठा करते हैं, शान्तचित्त दिगम्बर जिनदेवकी प्रतिष्ठा करते हैं। इस तरह जो जिस देवका उपासक है उसे अपनी विधिसे उस देवको प्रतिष्ठा करनी चाहिए।"
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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