SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२४ सोमदेव विरचित यजानाति यथावस्य वस्तुसत्यमजसा । तृतीय लोचनं नृणां सम्यग्ज्ञानं तदुच्यते ॥२५६६ यष्टिवजानुषान्धस्य तत्स्यात्सुकृतचेतसः । प्रवृत्तिविनिवृत्य हिताहितविवेचनात् ॥२५७॥ मतिर्जागर्ति हटेऽर्थे ऽदृष्टे तथागमः । अतोन दुर्लभं तत्त्वं यदि निर्मस्सैरं मनः ॥२८॥ यद्यर्थे दर्शितेऽपि स्याजन्तोः संतमसा मतिः। .. शाममालोकवत्तस्य वृथा रेविरिपोरिव ॥२६॥ शातुरेव स दोषोऽयं यदवाऽपि वस्तुनि । मतिविपर्ययं धत्ते यथेन्दौ मन्दचक्षुषः ॥२६०॥ उसीको शुभ विचारोंमें लगाकर उत्कृष्ट पुण्यका बन्ध कर सकता है। तथा उसीको शुभ और अशुभ दोनोंसे हटाकर शुद्धोपयोग में लगा देनेसे मोक्ष प्राप्त कर सकता है। अतः चित्तके विकल्पों को समझकर उन्हींके नियन्त्रणका प्रयत्न करते रहना चाहिए तभी बाह्य क्रियाएँ भी फलदायी हो सकती हैं। सम्यग्ज्ञानका स्वरूप [अब सम्यग्ज्ञानका स्वरूप बतलाते हैं-] जो सब वस्तुओंको ठीक रीतिसे जैसाका-तैसा जानता है उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं। यह सम्यग्ज्ञान मनुष्योंका तीसरा नेत्र है ॥ जैसे जन्मसे अन्धे मनुष्यको लाठी ऊँची-नीची जगहको बतलाकर उसे चलने और रुकनेमें मदद देती है वैसे ही सम्यग्ज्ञान हित और अहितका विवेचन करके धर्मात्मा पुरुषको हितकारक कार्योंमें लगाता है और अहित करनेवाले कामोंसे रोकता है ॥२५६-२५७॥ मतिज्ञान तो इन्द्रियोंके विषयभूत पदार्थोको ही जानता है। किन्तु शास्त्र इन्द्रियोंके विषयभूत और अतीन्द्रिय दोनों प्रकारके पदार्थोका ज्ञान कराता है । अतः यदि ज्ञाताका मन ईर्षा, द्वेष आदि दुर्भावोंसे रहित है तो उसे तत्त्वका ज्ञान होना दुर्लभ नहीं है ॥२५८॥ यदि तत्त्वके जान लेनेपर भी मनुष्यको बुद्धि अन्धकारमें रहती है तो जैसे उल्लके लिए प्रकाश व्यर्थ होता है वैसे ही उस मनुष्यका ज्ञान भी व्यर्थ है ॥ साफ स्पष्ट वस्तुमें भी बुद्धिका विपरीत होना ज्ञाताके ही दोषको बतलाता है। जैसे चन्द्रमाके विषयों काच कामलादि रोमले अस्त नेत्रचाले मनुष्यको विपरीत ज्ञान होता है-एकके दो चन्द्रमा दिखायी देते हैं। यह ज्ञाताकी ही खराबी है, चन्द्रमाकी नहीं ॥२५९-२६०॥ भावार्थ-जो वस्तु जिस रूपमें है उसको वैसा जानना सम्याज्ञान है। सम्यग्ज्ञानका फल ही यह है कि वह हित और अहितका ज्ञान कराकर ज्ञाताको हितमें लगाये और अहितसे बचाये। किन्तु यदि कोई सम्यग्ज्ञानसे वस्तुको जानकर भी उसकी उपेक्षा करता है तो यह १. सर्ववस्तुस्वरूपम् । २. पदार्थे । ३. मात्सर्यरहितम् । ४. मलिना। ५. उलूकस्येव । 'यद्यर्थे दर्शितेऽपि स्यान्महामोहमयी मतिः । बुद्धिः प्रभातवत् तस्य वृथा रविरिपोरिव ॥ ७४ ॥-प्रबोधसार । ६. यथा मन्ददृष्टिः पुमान् दो त्रीन् वा चन्द्रान् पश्यति ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy