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________________ १२३ -२५५ ] उपासकाम्ययन बहिष्कार्यासमर्थेऽपि विस्व संस्थिते । परं पापं परं पुण्यं परमं च पदं भवेत् ॥२५४॥ प्रकुर्वाणः क्रियास्तास्ताः केवलं क्लेशभाजनः । यो न चित्तप्रचारशस्तस्य मोक्षपदं कुतः ॥२५५॥ बाह्य क्रिया न करते हुए भी यदि चित्त चित्तमें ही लीन रहता है तो उत्कृष्ट पाप, उत्कृष्ट पुण्य और उत्कृष्ट पद मोक्ष प्राप्त हो सकता है । जो केवल बाह्य क्रियाओंको करनेका ही कष्ट उठाता रहता है और चित्तकी चंचलताको नहीं समझता, उसे मोक्ष पद कैसे प्राप्त हो सकता है ? ॥ २५४--२५५ ॥ भावार्थ-कुछ लोग समझते हैं कि दूसरोंको दुःख देनेसे पाप कर्मका बन्ध होता है और सुख देनेसे पुण्य कर्मका बन्ध होता है। कुछ समझते हैं कि स्वयं दुःख उठानेसे पुण्य कर्मका बन्ध होता है और सुख भोगनेसे पाप कर्मका बन्ध होता है। किन्तु ऐसा ऐकान्तिक नियम नहीं है। क्योंकि यदि किसीको अच्छे भावोंसे दुःख भी पहुँचाया जाय तो वह पाप कर्मके बन्धका कारण नहीं होता। जैसे डाक्टर रोगीको नीरोग कर देनेकी भावनासे चीरा लगाता है। रोगीको महान् कष्ट होता है वह चिल्लाता है और छटपटाता है। फिर भी डाक्टरको चीरा लगाने से पाप कर्मका बन्ध नहीं होता। तथा यदि बुरे भावोंसे किसीको सुख दिया जाये तो वह पुण्य कर्मके बन्धका कारण नहीं होता । जैसे, कोई वेश्या किसी अनाथ सुन्दरीका पालन-पोषण करके उसे सुख पहुँचाती है जिससे उसके शरीरको बेचकर वह खूब धन जमा कर सके। वह सुखदान वेश्याके पुण्य कर्मके बन्धका कारण नहीं है। इसी तरह स्वयं दुख उठानेसे पुण्य कर्मका और सुख उठानेसे पाप कर्मका ही बन्ध होता है, यह भी एकान्त नियम नहीं है। क्योंकि बुरे भावोंसे दुःख उठानेपर पाप कर्मका ही बन्ध होता है और अच्छे भावोंसे सुख भोगनेपर भी पुण्य . कर्मका बन्ध होता है। अतः जैन धर्ममें भावकी ही मुख्यता है। भावकी विशुद्धि और अविशुद्धि पर ही पुण्य और पाप कर्मका बन्ध निर्भर है केवल बाह्य क्रियाके अच्छेपन या बुरेपनपर नहीं, क्योंकि एक पूजक भगवान्की पूजा करते समय यदि मनमें बुरे विचारोंका चिन्तवन करता है तो उसकी बाह्य क्रिया शुभ होने पर भी मनकी क्रिया शुभ नहीं हैं इसलिए उसे पुण्य कर्मका बन्ध नहीं होता । तथा एक पिता बच्चेकी बुरी आदत छुड़ानेके लिए उसे मारता है । यहाँ यद्यपि पिताकी बाह्य क्रिया खराब है, देखनेवाले उसे. बुरा-भला कहते हैं मगर उसके चित्तमें लड़केके कल्याणकी भावना समायी हुई है। अतः जो केवल बाह्य क्रियाओंके करनेमें ही लगे रहते हैं और मनको उनमें लगानेका प्रयत्न नहीं करते वे कभी भी मुक्ति लाभ नहीं कर सकते। चित्तकी वृत्तियाँ बड़ी चंचल होती हैं और उनके नियमनपर ही सब कुछ निर्भर है। जो आदमी एकान्त स्थानमें ध्यान लगाकर बैठा हुआ है, न वह किसीको दुःख देता है और न किसीको सुख, फिर भी चूंकि उसका मन योगमें न लगकर भोगकी कल्पनामें रम रहा है अतः वह बैठे-बिठाये पाप कर्मका बन्ध करता है। इसीलिए कहा है कि मन ही मनुष्योंके बन्ध और मोक्षका कारण है। उसके द्वारा मनुष्य चाहे तो न कुछ करते हुए भी सातवें नरकका बन्ध कर सकता है और १. चित्ते। अशुभध्यानेन पापं स्यात्, शुभेन पुण्यम् । परमशुक्लेन परं पदम् । २. चित्तप्रसार-आ० ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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