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________________ ११८ सोमदेव विरचित [कल्प २१, श्लो० २४५ - अक्षाज्ञानं रुचिर्मोहाइहावृत्तं च नास्ति यत् । श्रात्मन्यस्मिशिवीभूते तस्मादात्मैव तत्त्रयम् ॥२४॥ इस आत्माके मुक्त हो जानेपर न तो इन्द्रियोंसे ज्ञान होता है, न मोहसे जन्य रुचि होती है और न शारीरिक आचरण होता है। अतः ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों आत्मस्वरूप ही हैं ॥२४॥ भावार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षके मार्ग हैं । किन्तु मोहके रहते हुए सच्चा श्रद्धान नहीं हो सकता, क्योंकि मोहके वशीभूत होकर प्राणी अपने हित-अहितको नहीं समझ पाता। जिससे उसे अपनी वासनाकी पूर्ति होती हुई दिखाई देती है उसे ही अपने सुखका साधन समझ बैठता है और जब उसीसे उसकी वासनाकी पूर्ति होती हुई नहीं दिखाई देती तब उसे ही दुःखका कारण मान बैठता है। इस तरह मोहके रहते हुए कभी वह सच्चे सुख और उसके साधनोंकी ओर दृष्टि ही नहीं देता । अतः मोहसे मिथ्याश्रद्धान ही होता है, सम्यक्श्रद्धान नहीं। सम्यकश्रद्धान तो आत्माका गुण है और वह मोहके अभावमें ही प्रकट होता है तथा ज्ञान भी आत्माका ही गुण है, इन्द्रियोंका नहीं। इन्द्रियाँ तो संसार अवस्थामें ज्ञानकी उत्पत्तिमें सहायक मात्र हैं। उनके बिना भी अतीन्द्रिय वस्तुओंका ज्ञान होता है और उनके रहते हुए भी कभी-कभी ज्ञान नहीं होता । अतः ज्ञान भी इन्द्रियोंका धर्म नहीं है। तथा चारित्र भी शरीरका धर्म नहीं है; क्योंकि शरीरसे कुछ न कुछ करते रहनेका नाम चारित्र नहीं है किन्तु कर्मबन्धके कारणभूत सब क्रियाओंका निरोध करना ही सम्यक्चारित्र है। शारीरिक क्रियाएँ तो कोके आस्रवकी कारण हैं । यदि वे क्रियाएँ शुभ होती हैं तो शुभ कर्मका आस्रव होता है और यदि वे क्रियाएँ अशुभ होती हैं तो अशुभ कर्मका आस्रव होता है। इसके सिवा यदि शरीरसे अच्छी क्रिया करते हुए भी मन उस ओर न हो और किन्हीं बुरे विचारोंमें रमता हो तो शारीरिक क्रिया शुभ होनेपर भी उसका फल शुभ नहीं होता; क्योंकि केवल द्रव्यसे, यदि उसमें भाव न लगा हो तो कुछ भी कार्य नहीं सध सकता। अतः चारित्र शरीरका धर्म नहीं है आत्माका धर्म है, शरीर तो केवल शुभाचरण रूप चारित्रमें सहायक मात्र है। और फिर जब मुक्ति आत्मस्वरूप है तो वे तीनों आत्मस्वरूप ही होने चाहिए। क्योंकि कहा है कि सम्यग्दशन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र आत्माके सिवा अन्य द्रव्यमें नहीं रहते। अतः रत्नत्रयमय आत्मा ही मोक्षका कारण है । मुक्तावस्थामें इन्द्रियोंके अभावमें भी स्वाभाविक ज्ञानादिक गुण रहते हैं । यहाँ यह बतला देना आवश्यक है कि जैन सिद्धान्तमें वस्तुका विवेचन दो दृष्टियोंसे होता है, एक व्यवहार-ट प्टिसे और दूसरे निश्चयदृप्टिसे । व्यवहार-दृष्टिको व्यवहारनय कहते हैं और निश्चय-दृष्टिको निश्चयनय कहते हैं । आचार्य अमृतचन्द्रसूरिने अपने पुरुषार्थसिद्धयुपाय नामक ग्रन्थके प्रारम्भमें लिखा है कि व्यवहार १. आत्मनि मोक्ष प्राप्ते सति अक्षात् षडिन्द्रियात् ज्ञानं न भवति । २. मुक्तजीवे मोहनीयकर्मणः रुचिर्न किन्तु आत्मरुचेरेव रुचिर्भवति। ३. शरीराच्चारित्रं न किन्तु आत्मन्येकलोलीभावश्चारित्रम् । ४. दर्शन-ज्ञान-चारित्रत्रयम् ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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