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________________ ११७ -२४४] उपासकाध्ययन मूढत्रयं मैदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः ॥२४१॥ निश्चयोचितचारित्रः सुदृष्टिस्तत्त्वकोविदः । अवतस्थोऽपि मुक्तिस्थो न व्रतस्थोऽप्यदर्शनः ॥२४२।। बहिःक्रिया बहिष्कर्मकारणं केवलं भवेत् । रत्नत्रयसमृद्धः स्यादात्मा रत्नत्रयात्मकः ॥२४३॥ विशुद्धवस्तुधीदृष्टिर्बोधः साकारगोचरः । अप्रसङ्गस्तयोवृत्तं भूतार्थनयवादिनाम् ॥२४४॥ सम्यग्दर्शनके दोष तीन मूढ़ताएँ, आठ मद, छह अनायतन और आठ शंका वगैरह, ये सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष हैं ॥२४१॥ भावार्थ-देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता और लोकमूढ़ता ये तीन मूढ़ताएँ हैं। इनका स्वरूप पहले बतला आये हैं। ज्ञानका मद करना, आदर सत्कारका मद करना, कुलका मद करना, जातिका मद करना, बलका मद करना, ऐश्वर्यका मद करना, तपका मद करना और शरीरका मद करना, ये आठ मद हैं। मद घमण्डको कहते हैं । कुदेव, कुदेवका मन्दिर, कुशास्त्र, कुशास्त्रके धारक, कुतप और कुतपके धारक ये छह अनायतन हैं। अनगारधर्मामृतमें मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र और उनके धारक इस तरह छह अनायतन कहे हैं । सम्यग्दर्शनके जो आठ अङ्ग बतलाये हैं उनके उल्टे शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा आदि आठ दोष हैं। ये सब मिलाकर सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष हैं। जो सम्यग्दृष्टि इन दोषोंसे रहित होता है उसका सम्यग्दर्शन निर्दोष कहा जाता है। मुक्तिके मार्गमें कौन स्थित है ? स्वरूपाचरण चारित्रका धारक और तत्त्वोंका ज्ञाता सम्यग्दृष्टि व्रतोंका पालन नहीं करते हुए भी मुक्तिके मार्गमें स्थित है । किन्तु व्रतोंका पालन करते हुए भी जो सम्यग्दर्शनसे रहित है वह मुक्तिके मार्गमें स्थित नहीं है ॥२४२॥ रत्नत्रय आत्मस्वरूप है बाह्य क्रिया तो केवल बाह्य कर्मकी ही कारण होती है। किन्तु रत्नत्रय रूपी समृद्धिका कारण तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रमय आत्मा ही है ॥२५३॥ निश्चयनयवादियोंके मतमें अर्थात् निश्चयनयकी दृष्टिमें विशुद्ध आत्मस्वरूपमें रुचि होना निश्चय सम्यक्त्व है। विशुद्ध आत्माको साकार रूपसे जानना निश्चय सम्यग्ज्ञान है और उन सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके विषयोंमें भेद-बुद्धि न करके एकरूप होना, अर्थात् आत्मस्वरूपमें लीन होना निश्चयचारित्र है ॥२४४॥ १. 'श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥४॥' ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धि तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ॥ २५॥ -रत्न० श्रा० । २. अवतोऽपि योग्यचारित्रः (?)। ३. बाह्यज्ञानचारित्रादि। ४. शरीरग्रहणलक्षणम् । ५. आत्मस्वरूपे रुचिनिश्चयसम्यक्त्वम् । ६. आत्मपरिज्ञानम् । ७. तयोर्दृग्बोधयोविषयेऽप्रसङ्गः भेदः (?) एकलोलीभावः निश्चयचारित्रम् । ८. निश्चयनयज्ञानिनाम् ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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