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________________ २३४ ] उपासकाध्ययन . दशविधं तदाह आज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् । विस्तारार्थाभ्यां भवमवपरमावादिगाढं च ॥२३॥ -आत्मानुशासन, श्लो० ११ । होनेपर अथवा उनके क्षयके अभिमुख होनेपर देशघाती सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होते हुए जो सम्यग्दर्शन होता है उसे वेदक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं । जहाँ विवक्षित प्रकृति उदय आने योग्य तो न हो किन्तु उसका स्थिति अनुभाग घटाया या बढ़ाया जा सके अथवा उसका संक्रमण किया जा सके, उसे अप्रशस्त उपशम कहते हैं। ओर जहाँ विवक्षित प्रकृति न तो उदय आने योग्य हो, न उसका स्थिति अनुभाग घटाया या बढ़ाया जा सके और न अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण ही किया जा सके उसे प्रशस्त उपशम कहते हैं। वेदक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्वमें सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होते हुए भी उसमें सम्यक्त्वको नष्ट कर देनेकी शक्ति तो नहीं है किन्तु वह सम्यक्त्वमें चल मलिन और अगाढ़ दोष पैदा करती है । जैसे जल एक होकर भी लहरोंके उठनेपर चञ्चल हो जाता है वैसे ही सम्यक्त्व मोहनीयका उदय होनेसे श्रद्धानमें कुछ चञ्चलपना आ जाता है और उसके आनेसे सम्यग्दृष्टि अपने और दूसरोंके बनवाये हुए जिनविम्ब वगैरहमें यह मेरा है, यह दूसरोंका है ऐसा भेद कर बैठता है। इसके सिवा उसके श्रद्धानमें अन्य कुछ चञ्चलता नहीं होती। तथा जैसे शुद्ध सोना मलके सम्बन्धसे मलिन हो जाता है वैसे ही वेदक सम्यक्त्व शङ्का वगैरह मलके द्वारा मलिन हो जाता है। तथा जैसे वृद्ध मनुष्यके हाथकी लकड़ी हाथसे छूटती तो नहीं है किन्तु काँपती रहती है वैसे ही वेदक सम्यक्त्वीका श्रद्धान तो नहीं छूटता, किन्तु उसमें थोड़ी शिथिलता रहती है, वह जैन देवोंमें ही ऐसी भेदकल्पना कर लेता है कि शान्तिनाथ भगवान्की पूजा करनेसे शान्ति मिलती है, पार्श्वनाथ भगवान्की पूजा करनेसे धन मिलता है, आदि । क्षायिकसम्यक्त्व दर्शनमोहनीय कर्मके क्षय होनेपर होता है और दर्शनमोहनीयके क्षपणका प्रारम्भ कर्मभूमिया मनुष्य ही तीर्थङ्कर, केवली अथवा श्रुतकेवलीके पादमूलमें करता है। किन्तु उसकी पूर्ति चारों गतियोंमें होती है क्योंकि बद्धायु कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि मरकर चारों गतियोंमें से किसी भी एक गतिमें उत्पन्न हो सकता है। इतना विशेष है कि यदि उसने पहले मनुष्यायुका बन्ध किया है तो वह भोगभूमिया मनुष्योंमें ही जन्म लेता है, यदि तिर्यञ्चायुका बन्ध किया है तो भोगभूमिया तिर्यञ्चोंमें ही जन्म लेता है, यदि नरकायुका बन्ध किया है तो प्रथम नरकमें ही जन्म लेता हैं और यदि देवायुका बन्ध किया है तो सौधर्मादि कल्पोंमें या कल्पातीत देवोंमें जन्म लेता है। क्षायिकसम्यग्दर्शन सुमेरुकी तरह निश्चल और सदा अविनाशी होता है, अन्य सम्यग्दर्शन तो होकर छूट भी जाते हैं, किन्तु क्षायिकसम्यग्दर्शन नहीं छूटता। जिसे क्षायिकसम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो जाती है वह उसी भवमें या तीसरे भवमें अथवा चौथे भवमें मुक्तिलाभ कर लेता है, किन्तु चौथे भवसे आगे भव धारण नहीं करता । इस प्रकार सम्यग्दर्शनके तीन भेदोंका स्वरूप जानना चाहिए । सम्यग्दर्शनके दस भेद [अब सम्यक्त्वके दस भेद बतलाते हैं-] आज्ञासम्यक्त्व, मार्गसम्यक्त्व, उपदेशसम्यक्त्व, सूत्रसम्यक्त्व, बीजसम्यक्त्व, १५
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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