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________________ ११२ सोमदेव विरचित कर्मणां क्षयतः शान्तेः क्षयोपशमतस्तथा । श्रद्धानं त्रिविधं बोध्यं गतौ सर्वत्र जन्तुषु ॥२३३॥ [ कल्प २१, श्लो० २३३ क्योंकि सबको अपना मित्र समझकर सभीके साथ दयाका व्यवहार करनेसे एक तो अपने हृदय में दुर्भाव उत्पन्न नहीं होंगे, दूसरे, उनके उत्पन्न न होनेसे अशुभ कर्मोंका बन्ध नहीं होगा, तीसरे, हृदयमें शान्ति रहने के साथ ही साथ दुनिया में अपना कोई वैरी न रहेगा । अतः दूसरोंपर अनुकम्पा करना अपने पर ही अनुकम्पा करना है । सम्यग्दृष्टिमें ही इस प्रकारकी वास्तविक अनुकम्पा पायी जाती है । धर्म है, जीव है, परलोक है, मुक्ति है, मुक्तिके कारण हैं, इस प्रकारका जो भाव होता है उसे आस्तिक्य कहते हैं । यह आस्तिक्य सम्यग्दृष्टिमें ही पाया जाता है । इसके होनेपर ही वह आत्म-कल्याणके मार्गपर लगता है । यह प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्यका स्वरूप है | सम्यग्दर्शनके तीन मेद सम्यग्दर्शनके तीन भेद भी हैं -- औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक । जो समयग्दर्शन मिथ्यात्व, सम्यक मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियों के उपशमसे होता है उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं । जो इन सात प्रकृतियों के क्षयसे होता है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं । और जो इनके क्षयोपशमसे होता है उसे क्षायोपशमिक कहते हैं । ये तीनों सम्यग्दर्शन सब गतियोंमें पाये जाते हैं ॥ २३३॥ 1 भावार्थ- सम्यग्दर्शन के ये तीन भेद अन्तरङ्ग कारणकी अपेक्षासे किये गये हैं । अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके उपशमसम्यक्त्व ही होता है उसे प्रथमोपशमसम्यक्त्व कहते हैं । उपशमसम्यक्त्वके दो भेद हैं-- प्रथमोपशम सम्यक्त्व और द्वितीयोपशमसम्यक्त्व । मिथ्यादृष्टिगुणस्थानसे जो उपशमसम्यक्त्व होता है उसे प्रथमोपशमसम्यक्त्व कहते हैं और उपशम श्रेणि के अभिमुख हुए जीवके क्षायोपशमिक सम्यक्त्वपूर्वक जो उपशमसम्यक्त्व होता है उसे द्वितीयो - पशमसम्यक्त्व कहते हैं । अनादि मिथ्यादृष्टि जीव यदि सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है तो तीन करणोंके द्वारा दर्शनमोहनीयका सर्वोपशमन करके ही सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है । जो सादि मिथ्यादृष्टि बहुत कालतक मिथ्यात्वमें रहकर पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त करता है वह भी दर्शन मोहनीयका सर्वोपशमन करके ही सम्यक्त्वको प्राप्त करता है । किन्तु जो सम्यक्त्वसे च्युत होकर जल्दी ही सम्यक्त्वको प्राप्त कर लेता है वह सर्वोपशमन अथवा देशोपशमनके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त करता है । यदि वेदक प्रायोग्यकालके अन्दर ही सम्यक्त्वको ग्रहण कर लेता है तो देशोपशमके द्वारा ही ग्रहण करता है, नहीं तो सर्वोपशमके द्वारा ग्रहण करता है | दर्शनमोहनीय की तीनों प्रकृतियोंके उदयाभावको सर्वोपशम कहते हैं और सम्यक्त्व प्रकृतिसम्बन्धी देशघाती स्पर्द्धों के उदयको और शेष दोनों प्रकृतियोंके उदयाभावको देशोपशम कहते हैं । अनादि मिथ्या दृष्टि प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके अन्तर्मुहूर्तकाल पूरा होनेपर नियमसे मिथ्यात्वमें ही आता है और सादि मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्वको प्राप्त करके उससे च्युत होनेपर दर्शनमोहनीयकी तीनों प्रकृतियों में से किसी एकका उदय हो जानेसे मिथ्यादृष्टि, सम्यकू मिथ्यादृष्टि अथवा वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाता है । वेदकसम्यक्त्वको ही क्षायोपशमिकसम्यक्त्व भी कहते हैं । अनन्तानुबन्धी कषायका अप्रशस्त उपशम अथवा विसंयोजन होनेपर और मिथ्यात्व तथा सम्यक मिथ्यात्व प्रकृतियोंका प्रशस्त उपशम
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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