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________________ सोमदेव विरचित [कल्प १३, श्लो० १६६नरवरः सपरिवारः सोत्तालं तत्रागतः सन्कुमाराचारानुरागरसोत्सारितमृतिभीतिसंगान्मृगवेगादवगतामूलवृत्तान्तः साधुं तं कुमारं क्षमयामास । नृपनन्दनोऽपि प्रतिज्ञातसमयावसाने 'प्राणिनां सुलभसंपाताः खलु संसारे व्यसनविनिपाताः तदलमत्र कालकवलनावलम्बेन विलम्बेन । एषोऽहमिदानीमवाप्तयथार्थमनीषोन्मेषस्तावदात्महितस्योपस्करिष्ये' इति निश्चयमुपश्लिष्याभाष्य पितरमापिष्य च बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहाग्रहमाचार्यस्य सुरदेवस्यान्तिके तपो जग्राह । भवति चात्र श्लोकः विशुद्धमनसां पुंसां परिच्छेदपरात्मनाम् । किं कुर्वन्ति कृता विघ्नाः सदाचारखिलैः खलैः ॥१६॥ इत्युपासकाध्ययने वारिषेणकुमारप्रव्रज्याव्रजनो नाम त्रयोदशः कल्पः । पुनः 'इष्टं धर्मे नियोजयेत्, तथा आतुरस्यागदकारोपयोग इवानिच्छतोऽपि जन्तोधर्मयोगः कशलैः क्रियमाणो भवत्यायत्यामवश्यं निःश्रेयसाय' इति जातमतिस्तपःपरिग्रहेऽपि सहपांसुक्रीडितत्वाच्चिरपरिचयरूढप्रणयत्वाश्चात्मनः प्रियसुहृदं पुष्पवतीभट्टिनीभर्तुरमात्यस्य शाण्डिल्यायनस्य नन्दनमभिनवविवाहविहितकङ्कणबन्धनं पुष्पदन्ताभिधानमेतदाय राजा जल्दीसे परिवारके साथ वहाँ आया। वारिषेणके चारित्रका चमत्कार देखकर मृगवेग चोरको भी उससे बड़ा स्नेह उत्पन्न हुआ और वह मृत्युका भय छोड़कर वहाँ आया तथा उसने हारकी चोरीका सब हाल राजा श्रेणिकसे कहा। राजा श्रेणिकने कुमारको क्षमा कर दिया। वारिषेणने यह सोचकर 'संसारमें प्राणियोंपर संकट आना सुलभ है अतः मृत्युकी प्रतीक्षा करनेसे क्या लाभ ।' यह निश्चय कर लिया था कि चूंकि मुझे अब सच्चे ज्ञानको प्राप्ति हुई है इसलिए अब मैं आत्माका कल्याण करूँगा। अतः उसने अपने पितापर अपना निश्चय प्रकट कर दिया और बाह्य तथा आभ्यन्तर परिग्रहको छोड़कर आचार्य सुरदेवके समीपमें जिन-दीक्षा ले ली। इस विषयमें एक श्लोक है जिसका भाव इस प्रकार है _ 'सदाचारको बिगाड़नेवाले दुष्ट मनुष्योंके द्वारा किये गये विघ्न, विचारमें तत्पर विशुद्धमनवाले मनुष्योंका क्या कर सकते हैं ? अर्थात् कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकते ॥१९६॥ इस प्रकार उपासकाध्ययनमें वारिषेणकुमारका प्रव्रज्याव्रजन नामक तेरहवाँ कल्प समाप्त हुआ। राजा श्रेणिकका मन्त्री शांडिल्यायन था और उसकी पत्नी पुष्पवती थी। उनके पुष्पदन्त नामका पुत्र था। उसका नया विवाह हुआ था। वह वारिषेणका अत्यन्त प्रिय मित्र था, बचपनमें दोनों साथ खेले थे और चिरपरिचित होनेसे दोनोंमें गाढ़ स्नेह था। जब वारिषेण मुनि हो गये तो उनका विचार अपने मित्र पुष्पदन्तको भी मुनि बनानेका हुआ । वे सोचने लगे कि शास्त्रकारोंका कहना है कि 'अपने प्रियजनको धर्ममें लगाना चाहिए' तथा जैसे रोगीका वैद्यसे इलाज कराना आगे लाभदायक होता है वैसे ही न चाहनेवाले जीवको भी समझदार मनुष्य यदि धर्ममें लगा दें तो उत्तरकालमें वह अवश्य ही मोक्ष की प्राप्तिका कारण होता है । यह सोचकर वारिषेण मुनि अपने मित्रके घर गये और स्वामीके पुत्र होनेके कारण तथा महामुनिका रूप होनेके १. त्वरितं । २. चूर्णीकृत्य । ३. ज्ञातात्मनाम् । ४. 'औषधम्' ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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