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________________ - १६५ ] तस्य धन दत्तस्यागारमाचरितहारापहारस्तरिकरण निकर निश्चितचरणचारस्तलारानुचरैनुसृतो मृगयितुमसमर्थस्तस्य व्युत्सर्गवेषमुपेयुषो वारिषेणस्य पुरतो हारमपहाय तिरोदधे । उपासकाध्ययन ७७ तदनुचरास्तत्प्रकाशविशेषवशात् 'वारिषेणोऽयं ननु राजकुमारः पलायितुमशक्तः पित्रोः श्रावकत्वादिमामर्हत्प्रतिमासमानाकृतिं प्रतिपद्य पुरो निहितहारः समास्ते' इत्यवमृश्य प्रविश्य च विश्वम्भराधी शवेश्मनिवेशमेतत्पितुः प्रतिपादितवृत्तान्ताः । दण्डो हि केवलो लोकं परं चेमं च रक्षति । राज्ञा शत्रौ च पुत्रे च यथादोषं समं धृतः ॥१६५॥ इति वचनात् 'नहि महीभुजां गुणदोषाभ्यामन्यत्र मित्रामित्रव्यवस्थितिः, तदस्य रत्नापहारोपहतचरित्रस्य पुत्रशत्रोर्न प्राणप्रयाणादपरश्चण्डो दण्डः समस्ति' इति न्यायनिष्ठुरतावेशात्तज्जनकादेशादागत्य तं सदाचारमहान्तं प्रहरन्तः शरविशरान्प्रसूनशेखरतां भ्रमिलमैण्डलानि कर्णकुण्डलतां कृपाणनिकरान्मुक्ताहारतामेवमपराण्यप्यस्त्राणि भूषणतामनुसरन्ति, निबुध्य तद्धयान धैर्यप्रवृद्धप्रमोदतया स्वयमेव पुरदेवताकरविकीर्यमाणामरतरुप्रसवोपहारमम्बरचरकुमारास्फाल्यमानान कनिकर मनिमिषनिकाय कीर्त्यमानानेक स्तुतिव्यतिकरमितस्ततो महामहोत्सवावतारं च निचोय्य सत्वरमतिभीतविस्मितान्तःकरणाः श्रेणिकधरणीश्वरायेदं निवेदयामासुः । यह सुनते ही कामुक मृगवेग वेश्या के घर से निकलकर धनदत्तके घर पहुँचा और अपनी चतुराई से उसके घर में घुस हारको चुरा जैसे ही चला वैसे ही उस हार की किरणोंके प्रकाश से नगरके सिपाहियोंने उसे देख लिया और वे उसके पीछे दौड़े। अपने को दौड़ने में असमर्थ जानकर मृगवेगने वह हार कायोत्सर्गसे स्थित वारिषेणके आगे डाल दिया और स्वयं छिप गया । जब सिपाही वहाँ पहुँचे तो उन्होंने हारके प्रकाशमें वारिषेणको पहचाना। उन्होंने सोचा कि राजकुमारके माता-पिता श्रावक हैं अतः भागने में असमर्थता देख राजकुमारने अपने आगे हार रखकर जिनेन्द्रकी प्रतिमाके समान अपना रूप बना लिया है । यह सोच वे सब राजमहल में आये और राजा श्रेणिकसे सब समाचार निवेदन कर दिया । नीति में कहा है कि - 'राजाके द्वारा शत्रु और पुत्रको अपराधके अनुसार समान रूप से दिया गया दण्ड इस लोककी और परलोककी भी रक्षा करता है || १९५॥ अतः राजाओं के लिए जो गुणी है वह मित्र है और जो दोषी है वह शत्रु है । इसलिए रत्नहारको चुरानेवाला मेरा पुत्र भी मेरा शत्रु है और मृत्युके सिवा दूसरा कोई भयानक दण्ड है नहीं । यह विचारकर राजा श्रेणिकने कठोर बनकर अपने पुत्रकी मृत्युकी आज्ञा दे दी । राजाकी आज्ञा पाकर वे सिपाही स्मशान भूमिमें आये और उस महान् सदाचारी वारिषेणके ऊपर शस्त्र प्रहार करने लगे । शस्त्र प्रहार करते ही बाण तो फूलोंका मुकुट बन गये । चक्र कानोंके कुण्डल बन गये, तलवारें मोतियों का हार बन गई। इस तरह अन्य भी अस्त्र भूषणरूप हो गये । यह समाचार जानकर और वारिषेणके ध्यान और धैर्यसे प्रसन्न होकर नगर देवताने स्वयं ही पुष्पोंकी वर्षा की, विद्याधर कुमारोंने दुन्दुभि बाजे बजाये और देवताओंने वारिषेणकी बहुत स्तुति की। जब सिपाहियोंने यह सब महामहोत्सव देखा तो वे बड़े डरे और राजा श्रेणिकसे जाकर उन्होंने सब समाचार कहा । १. पलायितुम् । २. त्यक्त्वा । ३. समास - अ० । ४. चक्र । ५. अवलोक्य |
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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