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________________ सोमदेव विरचित [कल्प ७, श्लो० १५६अत्रान्तरे निष्कारणकलिकार्याअनसुन्दर्या निशीथ'पथवर्तिवीक्षणे क्षपाक्षणे मध्यदेशे प्रसिद्धविजयपुरस्वामिनः सुन्दरीमहादेवीविलासिनः स्वकीयप्रतापबहुल वाहनाहुतीकृतारातिसमितेररिमन्थमहीपतेर्ललितो नाम सुतः समस्तव्यसनाभिभूतत्वाद्दायाँ दक्रव्यादसंपादितसाम्राज्यपदापायः परमुपायमपश्यन्नदृश्याञ्जनावर्जनोर्जितप्रज्ञः प्रतीताञ्जनचोरापरसंशः किलैवमुक्तः–'कुशाग्रेपुरपरमेश्वरस्याग्रमहिण्यास्ताविष्याः सौभाग्यरत्नाकरं नाम कण्ठालंकारमिदानीमेव यद्यानीय प्रयच्छसि, तदा त्वं मे कान्तः, अन्यथा प्रणयान्तः' इति। . सोऽपि कियद्गहनमेतत्' इत्युदारमुदाहृत्य प्रियतमामनोरथमन्वर्थकं चिकीर्षुनिजच्छायाश्यताशीलकजलबहललोचनयगलं विधाय प्रयार्य च तन्महीश्वरगृहं गृहीततदलंकारस्तत्प्रभाप्रसरसमुल्लक्ष्यमाणचरणसंचारः शब्दशस्त्रोत्तालाननकरैस्तलवरानुचरैरभियुक्तो निस्तरीतुमशक्तः परित्यज्य तदाभरणमितस्ततो नगरबाहिरिकायां विहरमाणस्तं धरसेनं प्रदीपं दीप्तिवशादधस्तादत्रनिवेशभयावेशान्मुहुर्मुहुरारोहावरोहावहदेहदोनम लोक्योपढौक्य च तं देशमेवं निर्दिदेश–'अहो प्रलयकालान्धकाराविलायामस्यां वेलायां महासाहसिकवृषन्दुष्करकर्मकारिन् को नाम भवान् ? इसी बीचमें एक घटना घटी। मध्य देशके विजयपुर नगरका स्वामी राजा अरिमन्थ बड़ा प्रतापी था। उसकी पट्टरानीका नाम सुन्दरी था। उनके ललित नामका एक पुत्र था। वह बड़ा व्यसनी था । इसीलिए उसे अन्य बान्धवोंने उसके राज्यपद प्राप्तिमें बाधाएँ डाली । तब उसने दूसरा उपाय न देखकर एक ऐसा अञ्जन सिद्ध किया जिसके लगा लेनेसे वह अदृश्य हो जाता था। इससे उसकी शक्ति बहुत बढ़ गई और उसका नाम अञ्जनचोर प्रसिद्ध हो गया । जिस रात्रिमें धरसेन विद्या साधनेका उपाय करता था उसी रात्रिमें जब अञ्जनचोर अपनी प्रियतमाके पास गया तो उसने कहा-'कुशाग्रपुरके राजाकी पट्टरानीके गलेका 'सौभाग्यरत्नाकर' नामका आभूषण यदि इसी समय लाकर मुझे दोगे तो तुम मेरे पति हो, नहीं तो हमारे तुम्हारे प्रेमका अन्त है।' यह सुनकर अञ्जनचोर बोला-'यह क्या कठिन है।' इतना कहकर अपनी प्रियतमाके मनोरथको पूरा करनेके लिए वह अपनी आँखोंमें अञ्जन लगाकर अदृश्य हो गया और उस राजाके महलमें पहुंचा। जैसे ही वह उस आभूषणको चुराकर चला वैसे ही उसकी चमकसे कोतवालके सशस्त्र सिपाहियोंने उसके पद-संचारको लक्ष्य करके हल्ला करते हुए उसका पीछा किया। निकल भागनेमें अपनेको असमर्थ देखकर अञ्जनचोरने उस आभूषणको वहीं छोड़ दिया और नगरके बाहर इधर-उधर भागता हुआ जलते हुए दीपको देखकर उस स्थानपर आया जहाँ धरसेन नीचे लगे हुए अस्त्रोंके भयसे कभी छीकेसे उतरता था और कभी चढ़ता था। __ 'प्रलयकालके अन्धकारसे व्याप्त इस कालमें दुष्कर कर्म करनेवाले महा साहसी पुरुष ! तुम कौन हो ?' अजनचोरने पूछा । १. मध्यरात्रि । २. अग्नि । ३. शत्रुसमूहस्य । ४. गोत्रिण एव राक्षसाः । ५. राजगृह । ६. ताविषीनामिकायाः । ७. सार्थकम् ।-मन्वथं आ०। ८. गत्वा । ९. शब्देन उत्तालं मुखं शस्त्रेण उत्ताल: करो येषाम । १०. प्रदीप्रदीप-आ० । ११.-क्य समपढोक्य-आ० । १२. प्रधान ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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