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________________ -१५६ ] उपासकाध्ययन इति निगीर्य, वितीर्य च जिन समयाराधनवशे भवद्वंशे सर्वरुजापहारोऽयं हारः, सकलसपत्नसंतानोच्छेद्यमिदमातोद्यं च प्रेषणं करिष्यतीति कृतसंकेताभ्यां तद्द्वयमभिमतावस्थानं स्थानं प्रास्थायि । त्रिदशेश्वरवदनजृम्भमाणगुणसंकथः पद्मरथोऽपि तत्तीर्थकृतो गणधरपदाधिकृतो भूत्वा कृत्वा चात्मानमनूनरत्नत्रयतन्त्रं मोक्षामृतपात्रमजायत । भवति चात्र श्लोकः કર उररीकृत निर्वाहसाहसोचितचेतसाम् । Sataragat mathीतेंश्चाल्यं जगत्त्रयम् ॥ १५६॥ इत्युपासकाध्ययने जिनदत्तस्य पद्मरथपृथ्वीनाथस्य च प्रतिज्ञानिर्वाहसाहसो नाम षष्ठः कल्पः । इतश्च संगमिर्तसकलोपकरणसेनो धरसेनोऽप्यतुच्छभूच्छायावन्ध्ये पर्वेदिवसवसतेयीमध्ये सर्वतो यातुधानधावन प्रवर्धिनीषु स्मशानमेदिनीषु प्रवर्तिततदाराधनानुकूलमण्डलो न्यक्षासु' दिनु निक्षिप्तरक्षावलो ऽवगणः' कृतसकलीकरण "भागधेयीविधानसमये वटविटपाथे ३ पतिंवरा करकर्ति तसूत्र सरसहस्रसंपादितमात्मा सनसमानान्तरालोचितमन्तर्जल्प संकल्पितमन्त्रवाक्यः सिक्यं निबध्य प्रबन्धना' 'धस्तादूर्ध्वमुख विन्यस्तनिशिताशेषशस्त्रो यथाशास्त्रं बहिर्निवेशिताष्टविधेष्टिसिद्धिस्तद्विद्याराधन समृद्धबुद्धिर्बभूव । यह कहकर उसे एक हार और वाद्य दिया तथा कहा कि यह हार जैन धर्मका पालन करनेवाले तुम्हारे वंशके सब रोगोंको हरेगा और यह वाद्य समस्त वैरियोंकी सन्तानका नाश करेगा । ऐसा कहकर वे दोनों देव अपने अभिमत स्थानको चले गये । देवोंके द्वारा प्रशंसित पद्मरथ भी वासुपूज्य स्वामी के समवशरणमें जाकर जिनदीक्षा धारण करके भगवान्का गणधर बन गया और अपनेको सम्पूर्ण रत्नत्रयसे अलंकृत करके मोक्षरूपी अमृतका पात्र हो गया । किसीने ठीक ही कहा है कि 'जो अपनी प्रतिज्ञाका निर्वाह करनेमें उचित साहस दिखलाते हैं, इस लोक और परलोकमें वे इच्छित वस्तुको पाते हैं, तथा उनके यशसे तीनों लोक चलायमान हो जाते हैं ॥ १५६ ॥ इस प्रकार उपासकाध्ययनमें जिनदत्त और राजा पद्मरथके प्रतिज्ञा निर्वाहके साहसको बतलानेवाला छठा कल्प समाप्त हुआ । अब जिस घरसेनको जिनदत्तने देवोंके द्वारा दी गई आकाशगामिनी विद्या साधने के लिए दी थी, उसकी कथा सुनिए । समस्त साधन सामग्रीको एकत्र करके धरसेन भी घने अन्धकारसे पूर्ण अमावस्या की रात्रिके समयमें राक्षसों के संचारसे व्याप्त स्मशान भूमि में विद्या साधनेके लिए गया । वहाँ उसने विद्याराघनके अनुकूल मण्डलकी - रचना की, सब दिशाओंमें रक्षावलय स्थापित किये, फिर सकलीकरण क्रिया की, फिर बटके पेड़के नीचे, अपने आसनसे समान अन्तरालपर, कन्याके हाथसे काते गये हजार धागों से बने हुए छीकेको, मन-ही-मन मंत्रोच्चारण करते हुए बाँधा । फिर छी नीचे सब तीक्ष्ण शस्त्रोंको स्थापित किया, जिनका मुँह ऊपर की ओर था । फिर शास्त्रानुसार आठ प्रकारकी इष्टसिद्धिको स्थापित करके उस विद्याकी आराधना के लिए तैयार हुआ । १. शत्रुकुल । २. वाद्यम् । ३. प्रेक्षणं ब० । ४ हारातोद्यद्वयम् । ५. कीर्तिश्चाल्पं अ० ज० मु० ६. एकीकृत । ७. तिमिर । ८. रात्रि । ९. राक्षस । १०. सर्वासु । ११. एकाकी । १२. वलि । १३. कन्या । १४. प्रबन्धेना-आ० । ७
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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