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________________ सोमदेव विरचित [ कल्प ५, श्लो० १५१अमितप्रभः - 'विद्युत्प्रभ, संप्रत्यपि न मुञ्चसि दुराग्रहम् । तदेहि । तव मम च लोकस्य परीक्षावहे चित्तम्' इति विहितविवादौ तौ द्वावपि देवौ करहाटदेशस्य पश्चिमदिग्भागमाश्रित्य कोश्यपीतलमवतेरतुः । तत्र च वनेचरसैन्यसौजन्याशून्ये तन्निकटदण्डकारण्यवने सेमित्कुश कुशाशयप्रकामे बदरिकाश्रमे बहुलकालकृत कृच्छ्रतपसं चन्द्रचंण्डमरीचिरुचिपानपरायणमनसमूर्ध्वबाहुमेकपादावस्था नाग्रह राहुमनल्पोल्लसत्पल्लवाविरलवल्ली गुल्म वल्मीका वरुद्धवपुषमतिप्रवृद्धवृद्धतासु - धाधवलितशिरः श्मश्रुजटाजालत्विषमृषेः कश्यपस्य शिष्यं जमदग्निमवलोक्य पत्ररथमिथुनकथोचिताश्लेषं वेषं विरचय्य तत्कूर्चकुलायकुटीरकोटरे निविष्टौ 'कान्ते, काञ्चनाचलमूलमेखलायामशेषशकुन्तचक्रवर्तिनो वैनतेयस्य वातराजसुतया मदनकन्दलीनामया सह महान्विवाहोत्सवो वर्तते । तत्र मयावश्यं गन्तव्यम् । त्वं तु सखि, समासन्नप्रसवसमया सती सह न शक्यसे, नेतुम् । अहं पुनस्तद्विवाहोत्सवानन्तरमकालक्षेपमागमिष्यामि । यथा चाहं तत्र चिरं नावस्थास्ये तथा मातुः पितुञ्चोपरि महान्तः शपथाः । किं च बहुनोक्तेन । यद्यहमन्यथा वदामि तदास्य पापकर्मणस्तपस्विनो दुरितभागी स्याम्' इत्यालापं चक्रतुः । तं च जमदग्निः कर्णकटुमालापमाकर्ण्य प्रवृद्धक्रोधः कराभ्यां तत्कदर्थनार्थ कूर्व प्रभावसे यहाँ आकर तुमसे भी बड़े देव होंगे । इसलिए मुझे देखकर तुम्हें आश्चर्य नहीं करना चाहिए ।' अमितप्रभ बोला- 'विद्युत्प्रभ ! अब भी अपने दुराग्रहको नहीं छोड़ते हो तो आओ हम दोनों अपने-अपने धर्मात्माओंके चित्तकी परीक्षा करें ।' इस प्रकार परस्पर में झगड़ते हुए वे दोनों देव करहाट देशकी पश्चिम दिशामें पृथ्वीपर उतरे । वहाँ दण्डकारण्य वनमें समिधा, कुश और कमलों से भरे हुए बदरिकाश्रम में उन्होंने बहुत कालसे कठोर तपस्या करते हुए कश्यप ऋषिके शिष्य जमदग्निको देखा । वे जमदग्नि ऋषि चन्द्र और सूर्य दोनोंकी किरणोंका पान करनेमें तत्पर थे । उनके दोनों हाथ ऊपर उठे हुए थे, वे एक पैर से खड़े थे । उनके चारों ओर उगी हुई घनी लता झाड़ी और वामियोंने उनके शरीरको ढक दिया था, और बहुत वृद्ध हो जानेके कारण उनके सिर और दाढ़ी मूछोंके बाल चूनेकी तरह सफेद हो गये थे । उन्हें देखकर उन दोनों देवताओं ने पक्षियोंके जोड़ेका रूप बनाया और उनकी जटाओं में घोंसला बनाकर रहने लगे । T ४४ एक दिन पक्षी बोला – 'प्रिये ! सुवर्णगिरि की उपत्यका में समस्त पक्षीकुलके सम्राट् गरुड़राजका वातराजकी सुता मदनकन्दलीके साथ महान् विवाहोत्सव हो रहा है । उसमें मुझे अवश्य जाना है । तुम्हारा प्रसवकाल समीप है इसलिए तुम्हें मैं अपने साथ नहीं ले जा सकता । विवाहोत्सव के बाद तुरन्त ही मैं लौट आऊँगा । मैं अपने माता- पिताकी शपथ करता हूँ कि मैं वहाँ बहुत समय तक नहीं ठहरूँगा। अधिक क्या कहूँ, यदि झूठ बोलूँ तो इस पापी तपस्वी के पापका भागी मैं होऊँ ।' 1 इस अप्रिय बात सुनते ही जमदग्निका क्रोध भड़क उठा और उसने पक्षियों को मारने के १. भूमि । २. ईंधन । ३. दर्भ । ४. जल । ५. सूर्य । ६ - तिप्रवृद्धहृदयता - आ० । ७. पक्षियुगल । ८. - चक्रचक्र - आ० । ९. नामधेयया आ० ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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