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________________ -१५१ ] उपासकाध्ययन धन्वन्तरिरप्यातापनयोगान्ते तस्य संबोधनाय संमन्ते समुपसद्य 'मत्प्रणयपान्थविश्रामाराम विश्वानुलोम जिनधर्मस्थितिमनवबुध्यमानः किमित्यकाण्डे चण्डभावमादाय दुराचारप्रधानः समभूः। तदेहि विहायेमं दुःपथकथासनाथं शेमथावसथमनोरथं सहैव तपस्यावः' इति बहुशः कृतप्रयत्नप्रकाशोऽपि दुःशिक्षावशात्तमोतपोतरुतभीतपतङ्गपाकमिव मुधामौनमूकतोत्तरङ्गितचित्तोत्सेकं तितउपात्र इव तन्मनोमोप्राप्तसदुपदेशपयोवस्थानः प्रतिवोधयितुमशक्नुवन्गुरुपादमूलमनुशील्य कालेन प्रवचनोचितं चरमाचरणाधिकृतं विधि विधाय विबुधाङ्गनाजनोचार्यमाणमङ्गलपरम्परानल्पेऽच्युतकल्पे समस्तसुरसमाजस्तूयमानमहातपःपरायणप्रतिभोऽमितप्रभो नाम देवोऽभवत् । विश्वानुलोमोऽपि पुरोपार्जितजीवितावसाने विपद्योत्पद्य च व्यन्तरेषु गजानीकमध्ये विजयनामधेयस्य विद्युत्प्रभाख्यया वाहनो बभूव । पुनरेकदा पुरंदरपुरःसरेण दिविजवृन्देन सह नन्दीश्वरद्वीपात्तत्रत्यचैत्यालयाश्रयामष्टाह्रीपर्वक्रियां निर्वागच्छन्नसावमितप्रभो देवस्तं विद्युत्प्रभमिभमवेक्ष्याह्वादमानमानसः प्रयुज्यावधिमवबुद्धपूर्ववृत्तान्तः 'विद्युत्प्रभ, किं स्मरसि जन्मान्तरोदन्तम्' इत्यभाषत । विद्युत्प्रभः-'अमितप्रभ, बाढं स्मरामि। किंतु सकलत्रचारित्राधिष्ठानादनुष्ठानान्ममैवंविधः कर्मविपाकानुरोधः। तव तु ब्रह्मचर्यवशात्कायक्लेशादीदृशः। ये च मदीये समये जमदग्नि-मतङ्ग-पिङ्गल-कपिञ्जलादयो महर्षयस्ते तपोविशेषादिहागत्य भवतोऽप्यभ्यधिका भविष्यन्ति । ततो न विस्मतव्यम्'। जटाधारी साधु बन गया। आतापन योगके समाप्त होनेपर धन्वन्तरि मुनि उसे समझाने गये। बोले—'मेरे प्रेमरूपी पथिकके विश्राम करनेके लिए उद्यानके तुल्य विश्वानुलोम ! जैन धर्मकी मर्यादाको न जानकर, बिना कारण क्रोध करके तुम क्यों कुमार्गगामी हो गये हो ? चलो इस कुमार्गको छोड़ो, दोनों साथ ही तपस्या करेंगे।' इस प्रकार बार-बार कहनेपर भी विलावके बच्चेके शब्दसे डरे हुए पक्षी शावककी तरह मूक रहकर वह मौनका ढोंग बनाये रहा और चलनीमें दूधकी तरह उसके मनमें धन्वन्तरिका सदुपदेश नहीं ठहर सका। तब धन्वन्तरि उसे समझानेमें अपनेको असमर्थ जानकर गुरुके पादमूलमें लौट आये और आगमानुसार उत्कृष्ट चारित्रका पालन करते हुए शरीर त्यागकर देवांगनाओंके मंगलगानसे मुखरित सोलहवें स्वर्गमें अमितप्रभ नामक देव हुए । वहाँ देव समाजने उनके महातपकी बड़ी प्रशंसा की। विश्वानुलोम भी मरकर विजय नामक व्यन्तरकी गजसेनामें विद्युत्प्रभ नामसे वाहन जातिका देव हुआ। एक बार अष्टाहिका पर्वमें अमितप्रभ देव इन्द्रादिक देवताओंके साथ नन्दीश्वरदीपके चैत्यालयोंकी पूजा करके लौट रहा था। मार्गमें विद्युत्प्रभ नामके हाथीको देखकर उसका मन बड़ा हर्षित हुआ और अवधिज्ञानसे पूर्व जन्मका सब वृत्तान्त जानकर वह बोला'विद्युत्प्रभ ! क्या पूर्व जन्मका वृत्तान्त याद है ?' विद्युत्प्रभ बोला-'अमितप्रभ, हाँ, खूब याद है। किन्तु सपत्नीक चारित्रका पालन करनेसे मेरा कर्मोदय ऐसा हुआ और ब्रह्मचर्यके कारण कायक्लेश उठानेसे तेरा कर्मोदय ऐसा हुआ। किन्तु मेरे समयके जो जमदग्नि, मतङ्ग, पिंगल, कपिञ्जल आदि महर्षि हैं वे तपस्याके १. समीपे । २. तापसाश्रम । ३. मार्जारबालशब्दभीतपक्षिबालमिव ।-ङ्गशावक-ब०। ४. चालनिका ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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