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________________ उपासकाध्ययन सर्वशं सर्वलोकेशं सर्वदोषविवर्जितम् । सर्वसत्त्वहितं प्राहुराप्तमाप्तमतोचिताः ॥४६॥ 'शानवान्मृग्यते कश्चित्तदुक्तप्रतिपत्तये। अझोपदेशकरणे विप्रलम्भनशङ्किभिः ॥५०॥ यस्तत्त्वदेशनाद्दुःखवार्धरुद्धरते जगत् । कथं न सर्वलोकेशः प्रह्वीभूतजगत्त्रयः ॥५१॥ क्षुत्पिपासाभयं द्वेषश्चिन्तनं मूढतागमः। राँगो जरा रुजा मृत्युः क्रोधः खेदो मदो रतिः ॥५२॥ विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश ध्रुवाः। त्रिजगत्सर्वभूतानां दोषाः साधारणा इमे ॥५३|| एभिर्दोषैर्विनिर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरअनः । स एव हेतुः सूक्तीनां केवलज्ञानलोचनः ॥५४॥ रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते छनृतम् । यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं नास्ति ॥५५॥ आप्तका स्वरूप जो सर्वज्ञ है, समस्त लोकोंका स्वामी है, सब दोषोंसे रहित है और सब जीवोंका हितू है, उसे आप्त कहते हैं । चूंकि यदि अज्ञ मनुष्य उपदेश दे तो उससे ठगाये जानेकी शंका रहती है, इसलिए मनुष्य उपदेशके लिए ज्ञानी पुरुषकी ही खोज करते हैं, क्योंकि उसके द्वारा कही गई बातोंपर विश्वास करनेके लिए किसी ज्ञानीको ही खोजा जाता है ॥४९-५०॥ [ऊपर प्राप्तको समस्त लोकोंका स्वामी बतलाया है । किन्तु जैनधर्ममें आप्तको न तो ईश्वर की तरह जगत्का कर्ता हर्ता माना गया है और न उसे सुख-दुःखका देनेवाला ही माना गया है। ऐसी स्थितिमें यह शङ्का होना स्वाभाविक है कि प्राप्तको सब लोगोंका स्वामी क्यों बतलाया ? इसी बातको मनमें रखकर ग्रन्थकार कहते हैं जो तत्त्वों का उपदेश देकर दुःखोंके समुद्रसे जगत्का उद्धार करता है, अत एव कृतज्ञतावश तीनों लोक जिसके चरणोंमें नत हो जाते हैं, वह सर्वलोकोंका स्वामी क्यों नहीं है ? ॥५१॥ भूख, प्यास, भय, द्वेष, चिन्ता, मोह, राग, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, क्रोध, खेद, मद, रति, आश्चर्य, जन्म, निद्रा और खेद ये अठारह दोष संसारके सभी प्राणियोंमें पाये जाते हैं । जो इन दोषोंसे रहित है वही आप्त है। उसकी आँखे केवल ज्ञान है उसीके द्वारा वह चराचर विश्वको जानता है तथा वही सदुपदेशका दाता है। वह जो कुछ कहता है सत्य कहता है, क्योंकि रागसे, द्वेषसे या मोहसे झूठ बोला जाता है। किन्तु जिसमें ये तीनों दोष नहीं हैं, उसके झूठ बोलनेका कोई कारण नहीं है ॥५२-५५॥ १. यह श्लोक धर्मकीर्तिके प्रमाणवार्तिक (१-३२) का है । २. "क्षुधा तृषा भयं द्वेषो रागो मोहश्च चिन्तनम् । जरा रुजा च मृत्युश्च स्वेदः खेदो मदो रतिः ॥१५॥ विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश ध्रुवाः । त्रिजगत् सर्वभूतानां दोषाः साधारणा इमे ॥१६॥ एतैर्दोषविनिर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरञ्जनः । विद्यन्ते येषु ते नित्यं तेऽत्र ससांरिणः स्मृताः ॥१७॥"-आप्तस्व० । ३. आप्तस्वरूप-श्लो०४।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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