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________________ उपासकाध्ययन १३ संपादयति कंचित्कालमुपलभ्यात्मनश्चा:चारित्रे, साधुसंपादनसारः संस्कार इव 'बीजेषु जन्मान्तरेऽपि न जहात्यात्मनोऽनुवृत्तिम् , सिद्धश्चिन्तामणिरिव च फलत्यसीमं कामितानि । व्रतानि पुनरोषधय इव फलपाकावसानानि पाथेयवन्नियतवृत्तीनि च । न च सिद्धरसवेधसंबन्धादुर्षर्बुधसंनिधानमात्रजन्मनि जाम्बुनद इवात्र पदार्थयाथात्म्यसमवगमान्मनोमननमात्रतन्त्रे निःशेषश्रुतश्रवणपरिश्रमः समाश्रयणीयः, न शरीरमायासयितव्यम् , न देशान्तरमनुसरणीयम् , नापि कालक्षेपकुतिरपेक्षितव्यः। तस्मादधिष्ठानमिव प्रासादस्य, सौभाग्यमिव रूपसंसदः, प्राणितमिव भोगायतनोपचारस्य, मूलबलमिव विजयप्राप्तः, विनीतत्वमिवाभिजात्यस्य, नयानुष्ठानमिव राज्यस्थितेरखिलस्यापि परलोकोदाहरस्य सम्यक्त्वमेव ननु प्रथमं कारणं गृणन्ति गरीयांसः। तस्य चेदं लक्षणम् प्राप्तागमपदार्थानां श्रद्धानं कारणद्वयात् ।। मूढाद्यपोढमष्टाङ्गं सम्यक्त्वं प्रशमादिभाक् ॥४॥ न्द्रियोंमें, पृथिवीकाय, जलकाय, तैजसकाय,वायुकाय और वनस्पतिकायमें जन्म नहीं होने देता। संसारको सान्त कर देता है। कुछ समयके पश्चात् उस आत्माके सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र अवश्य प्रकट हो जाते हैं । जैसे, बीजोंमें अच्छी तरहसे किया गया. संस्कार बीजोंकी वृक्षरूप पर्यायान्तर होनेपर भी वर्तमान रहता है, उसी तरह सम्यक्त्व जन्मान्तरमें भी आत्माका अनुसरण करता है, उसे छोड़ता नहीं है। सिद्ध चिन्तामणिके समान असीम मनोरथोंको पूर्ण करता है। व्रत तो ओषधि वृक्षोंकी तरह ( जो वृक्ष फलोंके पकनेके बाद नष्ट हो जाते हैं उन्हें ओषधि वृक्ष कहते हैं ) मोक्षरूपी फलके पकने तक ही ठहरते हैं तथा कलेवाकी तरह नियत कालतक ही रहते हैं । ( किन्तु सम्यक्त्व ऐसा नहीं है ) पारे और अग्निके संयोगमात्रसे उत्पन्न होनेवाले स्वर्णकी तरह, पदार्थोके यथार्थ स्वरूपको जानकर उनमें मनको लगाने मात्रसे प्रकट होनेवाले सम्यक्त्वके लिए न तो समस्त श्रुतको सुननेका परिश्रम ही करना आवश्यक है, न शरीरको ही कष्ट देना चाहिए, न देशान्तरमें भटकना चाहिए और न कालको ही अपेक्षा करनी चाहिए । अर्थात् सम्यक्त्वके लिए किसी कालविशेष या देश-विशेषकी आवश्यकता नहीं है । सब देशों और सब कालोंमें वह हो सकता है। इसलिए जैसे नीवको महलका, सौभाग्यको रूप सम्पदाका, जीवनको शारीरिक सुखका, मूल बलको विजयका, विनम्रताको कुलीनताका, और नीति पालनको राज्यकी स्थिरताका मूल कारण माना जाता है वैसे ही महात्मागण सम्यक्त्वको ही समस्त पारलौकिक अभ्युन्नतिका अथवा मोक्षका प्रथम कारण कहते हैं । उस सम्यक्त्वका लक्षण इस प्रकार है - सम्यग्दर्शनका लक्षण - अन्तरंग और बहिरंग कारणोंके मिलनेपर आप्त ( देव ), शास्त्र और पदार्थोंका तीन मूढता रहित, आठ अङ्ग सहित जो श्रद्धान होता है, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं, यह सम्यग्दर्शन प्रशम संवेग आदि गुणवाला होता है ॥४८॥ भावार्थ-सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व अन्तरंग और बहिरंग कारणोंके मिलनेपर प्रकट होता है । १. जोवेषु मु० । २. अग्नि । ३. सुवर्णे । ४. जीवितं । ५. शरीर । ६.-हरणस्य मु० । ७. तुलना'श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥३॥-रत्नकरण्डधा० ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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