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________________ सोमदेव विरचित [ श्लो०४४तदयुक्तम् । एकः खेऽनेकधान्यत्र यथेन्दुर्वेद्यते जनैः । न तथा वेद्यते ब्रह्म भेदेभ्योऽन्यदभेदभाक् ॥४४॥ अलमतिविस्तरेण। आनन्दो शानमैश्वर्य वीर्य परमसूक्ष्मता। एतदात्यन्तिकं यत्र स मोक्षः परिकीर्तितः ॥४५॥ ज्वालोरुवकबीजाद्रेः स्वभावादूर्ध्वगामिता । नियता च यथा दृष्टा मुक्तस्यापि तथात्मनः ॥४६॥ तथाप्यत्र तदावासे पुण्यपापात्मनामपि । स्वर्गश्वभ्रागमो न स्यादलं लोकान्तरेण वे ॥४॥ इत्युपासकाध्ययने समस्तसमयसिद्धान्तावबोधनो नाम प्रथमः कल्पः। अहो धर्माराधनकमते वसुमतीपते, सम्यक्त्वं हि नाम नराणां महती खलु पुरुषदेवता । यत्सकदेकमेव यथोक्तगुणप्रगुणतया संजातमशेषकल्मषकलुषधिषणतया नरकादिषु गतिषु, पुष्यदायुषामपि मनुष्याणां षट्सु तेलपातालेषु, भष्टविधेषु व्यन्तरेषु, दशविधेषु भवनवासिषु, पञ्चविधेषु ज्योतिष्केषु, त्रिविधासु स्त्रीषु, विकलकरणेषु पृथ्वीपयःपावकपवनकायिकेषु वनस्पतिषु च न भवति संभूतिहेतुः । सावधिं विदधात्याजवंजवीभावं, नियमेन किन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे चन्द्रमा आकाशमें एक और जलमें अनेक दिखाई देता है, वैसे भेदोंसे जुदा एक ब्रह्म ज्ञानगोचर नहीं होता ॥ ४४ ॥ अस्तु, अब इस प्रसंगको यहीं समाप्त करते हैं। मुक्त जीवका ऊर्ध्वगमन जहाँपर अविनाशी सुख, ज्ञान, ऐश्वर्य, वीर्य और परम सूक्ष्मत्व आदि गुण पाये जाते हैं उसीको मोक्ष कहते हैं । जैसे आगकी ज्वाला और एरण्डके बीज स्वभावसे ही ऊपरको जाते हैं, उसी प्रकार मुक्तात्मा भी स्वभावसे ही ऊपरको जाता है । यदि यही माना जाये कि मुक्त होनेपर आत्मा यहीं रह जाता है कहीं जाता नहीं है, तो पुण्यात्माओंका स्वर्गगमन और पापात्माओंका नरक गमन भी नहीं होगा। फिर तो परलोक की कथा ही व्यर्थ हो जाती है । अतः मुक्तात्माको ऊर्ध्वगामी 'मानना चाहिए ॥४५-४७|| ____ इस प्रकार उपासकाध्ययनमें समस्त मतोंके सिद्धान्तोंका ज्ञान करानेवाला पहला कल्प समाप्त हुआ। [अब ग्रन्थकार सम्यक्त्वका माहात्म्य और स्वरूप बतलाते हैं-] सम्यक्त्वका माहात्म्य धर्मप्रेमी राजन् ! सम्यक्त्व मनुष्योंका एक महती पुरुष देवता है अर्थात् देवताकी तरह उनका रक्षक है। क्योंकि यदि अपने यथोक्त गुणोंसे समन्वित सम्यग्दर्शन एक बार भी प्राप्त हो जाता है तो समस्त पापोंसे कलुषित मति होनेके कारण जिन पुरुषोंने नरकादिक गतियोंमेंसे किसी एककी आयुका बन्ध कर लिया है उन मनुष्यों का नीचेके छै नरकोंमें,आठ प्रकारके व्यन्तरोंमें, दस प्रकारके भवनवासियोंमें, पाँच प्रकारके ज्योतिषी देवोंमें, तीन प्रकारकी स्त्रियोंमें, विकले १. एरडंबीज । २. शर्कराबालकादिषु । ३. किन्नरकिंपुरुषादिषु । ४. असुरनागादिषु । ५. 'छसु हेट्टिमासु पुढवीसु जोइस-वण-भवण-सव्वइत्थीसु । वारसमिच्छावादे सम्माइट्रिस्स णत्थि उववादो ॥१९३॥' -पञ्चसंग्रह पृ० ४१ ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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