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________________ सोमदेव विरचित [श्लो० १०'निराश्रयवित्तोत्पत्तिलक्षणो मोक्षक्षणः' इति ताथागताः । तदुक्तम् "दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचिन्नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतः स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ॥१०॥ दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचिन्नवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतः क्लेशक्षयात्केवलमेति शान्तिम्" ॥११॥ -सौन्दरनन्द १६, २८-२९ 'बुद्धिमनोऽहंकारविरहादखिलेन्द्रियोपशमावहात्तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानं मुक्तिः' इति कापिलाः। 'यथा घटविघटने घटाकाशमाकाशीभवति तथा देहोच्छेदात्सर्वः प्राणी परब्रह्मणि लीयते' इति ब्रह्माद्वैतवादिनः । अज्ञातपरमार्थानामेवमन्येऽपि दुर्नयाः। मिथ्यादृशौ न गण्यन्ते जात्यन्धानामिव द्विपे ॥१२॥ प्रायः संप्रति कोपाय सन्मार्गस्योपदेशनम् । निलूननासिकस्येव विशुद्धादर्शदर्शनम् ॥१३॥ १२. बौद्धोंका कहना है कि निराश्रय चित्तकी उत्पत्ति हो जाना ही मोक्ष है। कहा भी है"जैसे दीपक बुझ जानेपर न किसी दिशाको चला जाता है, न किसी विदिशाको चला जाता है। न नीचे पृथिवीमें समा जाता है और न ऊपर आकाशमें समा जाता है, किन्तु तेलके चुक जानेसे शान्त हो जाता है। उसी तरह निर्वाणको प्राप्त हुआ जीव न किसी दिशाको जाता है, न किसी विदिशाको जाता है, न पृथिवीमें समा जाता है और न ऊपर आकाशमें समा जाता है, किन्तु क्लेशोंके क्षय हो जानेसे शान्त हो जाता है" ॥१०-११॥ १३. बुद्धि, मन और अहंकारका अभाव हो जानेके कारण समस्त इन्द्रियोंके शान्त हो जानेसे पुरुषका अपने चैतन्य स्वरूपमें स्थित होना मोक्ष है, ऐसा कपिल ऋषिके अनुयायी मानते हैं। ब्रह्माद्वैतवादियोंका कहना है कि जैसे घटके फूट जानेपर घटसे रोका हुआ आकाश आकाशमें मिल जाता है, उसी तरह शरीरका विनाश हो जानेपर सब प्राणी परम ब्रह्ममें लीन हो जाते हैं। ___जिस तरह जन्मान्ध मनुष्य हाथीके विषयमें विचित्र कल्पनाएँ कर लेते हैं, उसी तरह परमार्थको न जाननेवाले मिथ्यामतवादियोंने अन्य भी अनेक मत कल्पित कर रखे हैं, उनकी गणना करना भी कठिन है ॥१२॥ [ इस प्रकार मोक्षके विषयमें अन्य मतोंको बतला कर आचार्य विचारते हैं-] जैसे नकटे मनुष्यको स्वच्छ दर्पण दिखानेसे उसे क्रोध आता है, वैसे ही आजकल सन्मार्गका उपदेश भी प्रायः लोगोंके क्रोधका कारण होता है ॥१३॥ १. 'मोक्ष इति मोक्षावसरास्ताथागताः'-मु० । मोक्षक्षणः = मोक्षावसरः । २. अश्वघोषकृत सौन्दरनन्द काव्य, सर्ग १६, श्लो०२८-२९ इस प्रकार है-'दीपो यथा निर्व तिमभ्युपेतो नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न कांचित् विदिशं न कांचित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ एवं कृती निर्वृतिमभ्युपेतः "इत्यादि । ३. घटाभावे घटाकाशो महाकाशो यथा तथा। उपाध्यभावे त्वात्मैषः स्वयं ब्रह्मव केवलम् ॥६९५!।-सर्ववेदान्तसिद्धान्तसंग्रह । 'देहे मोहाश्रये भग्ने युक्तः स परमात्मनि । कुम्भाकाश इवाकाशे लभते चैकरूपताम् ।'-माठरवृत्ति (सां० का० ३९) में उद्धृत । ४. 'प्रायः प्रत्युत तापाय यथार्थस्योपदर्शनम् । यथा निलूतनासस्य विशुद्धादर्शदर्शनम् ॥२३॥-प्रबो० सार ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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