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श्रीमद् रामचन्द्र जैनशास्त्र मालायाम्
[ ३-दान के पात्र
विशेष - ऊपर कह चुके हैं कि पात्रको जिस भावसे दान दिया जाता है, दाता वैसे ही फलका भागी होता है, और यह पात्रव्यवहार दर्शन, ज्ञान, चारित्र गुणोंकी अपेक्षासे होता है; सो इनके धारण करनेवालों को तो यथायोग्य आदर सत्कारसे देना चाहिये और इनके अतिरिक्त अन्य दुःखी पीड़ित जनोंको दयाभावसे दान देना चाहिये' ।
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हिमायाः पर्यायो लोभोऽत्र निरस्यते यतो दाने । तस्मादतिथिवितरणं हिंसा व्युपरमरणमेवेष्टम् ।। १७२॥
श्रन्वयार्थी – [ यतः ] क्योंकि [ प्रत्र दाने ] यहाँ दानमें [हिंसायाः ] हिंसाका [ पर्य्याय ] : पर्याय [ लोभः ] लोभ [ निरस्यते ] नाश किया जाता है, [ तस्मात् ] श्रतएव [ श्रतिथिवितरणं ] - प्रतिथिदान [ हिसाव्युपरमरणमेव ] हिंसाका त्याग ही [ इष्टम् ] कहा है ।
भावार्थ - लोभका त्याग किये विना दान नहीं हो सकता, और पहले कह प्राये हैं कि लोभ हिंसाका रूप है, अतएव दानमें लोभका त्याग होनेसे हिंसाका भी त्याग सिद्ध होता है ।
गृहमागताय गुरणने मधुकरवृत्त्या परानपीडयते ।
वितरति यो नातिथये स कथं न हि लोभवान् भवति ॥ १७३॥
श्रन्वयार्थी - [ यः ] जो गृहस्थ [ गृहमागताय ] घरपर आये हुए [गुरिणमे ] संयमादि गुणयुक्तको और [ मधुकरवृत्त्या ] भ्रमर के सामन वृत्तिसे [ परान् ] दूसरोंको [ श्रपीडयते ] पीड़ा नहीं देनेवाले [ श्रतिथये ] अतिथि साधुके लिये [ न वितरति ] भोजनादिक नहीं देता है, [ सः ] वह [ लोभवान् ] लोभी [ कथं ] कैसे [ न हि ] नहीं [ भवति ] है ।
भावार्थ - जैसे भ्रमर (मौंरा) फूलोंको किसी प्रकारकी हानि न पहुंचाकर केवल उनकी सुगन्धि लेता है, उसी प्रकार रत्नत्रयमंडित परम वैरागी मुनि दाताको किसी प्रकार कष्ट न पहुंचाकर किंचिन्मात्र प्रहार करते हैं, सो ऐसे मुनिको भी जो श्रावक श्राहार नहीं देता है, वह अवश्य लोभी है ।
कृतमात्मार्थं मुमये ददाति भक्तमिति भावितस्त्यागः । अरतिविषादविमुक्तः शिथिलितलोभो भवत्य हव ।।१७४ |
श्रन्वयार्थी - [ श्रात्मार्थ ] अपने के लिये ( कृतम् ) बनाये हुए ( भक्तम् ) भोजनको ( मुनये) मुनिके लिये ( ददाति ) देवे, ( इति ) इस प्रकार ( भावितः ) भावपूर्वक ( प्ररतिविषादविमुक्तः ) प्रेम
१ उक्त च रयरणसारे - सप्पुरिसारणं दारणं कप्पतरूणं फलाग सोहं वा । लोहीणं दारणं जइ विमाणसोहा सवस्स जारणेह ॥
संस्कृतच्छाया - सत्पुरुषारणां दानं कल्पतरूरणां फलानां शोभा बा । लोभनां दानं यथा विमानशोभा शवस्य जानीहि ॥
श्रर्थात् - सत्पुरुषोंका दान देना तो कल्पवृक्षके समान है, जिससे शोभा होती है, और मनोवांछित फल
जिससे शोभा तो होती है, परन्तु
प्राप्त होते हैं, विपरीत इसके लोभीका दान देना मुर्दाके विमान समान है, गृहस्वामीको छाती कूटनी पड़ती है । अर्थात् लोभी पुरुष जब दान देता है, तब उस दानका फल कुछ भी नहीं होता ।
उसकी प्रशंसा तो होती है, परन्तु