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________________ श्लोक १६६-१७१] ... पुरुषार्थसिद्ध पामः । ..." भावार्थ-उत्तम पात्रोंको उक्त नव प्रकारकी भक्तिसे दान देना चाहिये, तथा सामान्य पात्रों को अपने और उनके गुणोंका विचार कर यथोचित विधिसे दान देना चाहिये। ऐहिकफलानपेक्षा क्षान्तिनिष्कपटतानस्यत्वम् । प्रविषादित्वमुदित्वे निरहङ्कारित्वमिति हि दातृगुणाः ॥१६॥ अन्वयाथों -- [ ऐहिकफलानपेक्षा ] रस लोकसम्बन्धी फलकी अपेक्षा न रखना, [ शान्तिः ] क्षमा या महनशीलता [निष्कपटता] निष्कपटता, [अनसूयेत्वम् ] ईर्षारहितता, [अविषादित्वमुदित्वे प्रखित्रभाव, हर्षभाव और [ निरहङ्कारित्वम् ] निरभिमानता, [ इति ] इस प्रकार ये सात [ हि ] निश्चय करके [ दातृगुणाः ] दाताके गुण हैं। ____ भावार्थ- दाता इन सात गुणोंकर सहित होना चाहिए, दातामें इन गुणोंकी न्यूनता होनेसे दानके फल में भी तदनु रागढवासंयममददुःखभयादिकं न यत्कुरुते । द्रव्य तदेव देयं सुतप-स्वाध्यायवृद्धिकरम् ।।१७०।। अन्वयार्थी - [ यत् ] जो [ द्रव्यं ] [ रागद्वेषासंयमददुःखमयादिकं ] राग, द्वेष; असंयम, मद, दुःख, भय आदिक [ न कुरुते ] नहीं करता है, और [ सुतपःस्वाध्यायवृद्धिकरम् ] उत्तम तप तथा स्वाध्यायकी वृद्धि करनेवाला [ तत् एव ] वह ही [ देयं ] देने योग्य है । भावार्थ-रागादि भावोंके उत्पन्न करनेवाले मन्दिर, हाथी, घोड़ा, सोना, चांदी, शस्त्रादि पदार्थ तथा कामोद्दीपनादि विकार उत्पन्न करनेवाले स्त्री वादित्रादि पदार्थ दान देने योग्य नहीं हैं, क्योंकि, इन वस्तुप्रोंके निमित्तसे दान लेनेवाला जीव स्वतः पापबंध करता है, और जिसका कि सहायक कारण होनेसे देनेवाला भी तज्जनित पापका भागी होता है। इसलिये दानमें ऐसे पदार्थ देना चाहिए, जो विकार भावोंको उत्पन्न न करे, और तपश्चरणादिको बढ़ानेवाले हों। जैसे क्षुधा निवारणके लिये आहार-दान, रोग-शमनके लिये औषध-दान, अज्ञान दूर करनेके लिये शास्त्र-दान, पौर भय मिटाने के लिये अभय-दान। पात्रं त्रिभेदमुक्त संयोगो मोक्षकारणगुणानाम् । अविरतसम्यग्दृष्टिः विरताविरतश्च सकलविरतश्च ॥१७१॥ अन्वयाथों-[ मोक्षकारणगुणानाम् ] मोक्षके कारणरूप गुणोंका अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यरज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप गुणोंका [संयोगः] संयोग जिसमें हो, ऐसा [पात्रं] पात्र [अविरतसम्यदृष्टिः ] व्रतरहित सम्यग्दृष्टि [च ] तथा [ विरताविरतः ] देशवती [ च ] और [ सकलविरतः ] महाव्रती [ त्रिभेदम् ] तीन भेदरूप [ उक्त ] कहा है। भावार्थ - जो दान लेनेवाले पुरुष रत्नत्रययुक्त होवें, वे पात्र कहलाते हैं। उनके तीन भेद हैं, उत्तम पात्र, मध्यम पात्र और जघन्य पात्र। इनमें से सकलचारित्रके धारण करनेवाले सम्यक्त्वयुक्त मुनि उत्तम पात्र, देशचारित्रयुक्त त्रसजीवोंकी हिंसाके त्यागी श्रावक मध्यम पात्र, और व्रतरहित सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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