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________________ ग्रंथ-प्रारंभः अस्ति पुरुषश्चिदात्मा विवर्जितः स्पर्शगन्धरसवणः । गुरणपर्ययसमवेतः समाहितः समुदयव्ययध्रौव्यः ।।६।। अन्वयाथों--[ पुरुषः ] पुरुष अर्थात् प्रात्मा [ चिदात्मा ] चेतनास्वरूप [अस्ति] है, [स्पर्शगन्धरसवर्णैः ] स्पर्श, गंध, रस और वर्णसे [ विवर्जितः ] रहित है, [ गुणपर्ययसमवेतः ] गुण और पर्याय सहित है, तथा [ समुदयव्ययध्रौव्यैः ] उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य करके [ समाहितः ] युक्त है। भावार्थ-पुर् उत्तम चैतन्यगुण, उनमें जो शेते स्वामी होकर प्रवृत्ति करे, उसकी पुरुष' संज्ञा है, अर्थात् दर्शन और ज्ञानरूप चेतनाके नाथको पुरुष कहते हैं । आत्माका यह अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असंभव इन तीनों दोषोंसे रहित असाधारण लक्षण है । पदार्थका जो लक्षण कहा जावे, वह किसी किसी लक्ष्यमें तो पाया जावे और किसी किसी लक्ष्यमें नहीं पाया जावे, वह लक्षण अव्याप्ति दूषणयुक्त कहा जाता है। इस अव्याप्तिसे रहित, चैतन्यगुणयुक्त आत्माका लक्षण होता है, क्योंकि ऐसा कोई प्रात्मा नहीं जिसमें चेतना न हो, परन्तु जब आत्माका लक्षण 'रागादि सहित' कहा जावेगा तो इसमें अव्याप्ति दूषणका प्रादुर्भाव होगा, क्योंकि रागादिक यद्यपि समस्त संसारी जीवोंके पाये जाते हैं, परन्तु सिद्ध जीवोंके नहीं हैं । और जो लक्षण लक्ष्यमें भी पाया जावे, उसे अतिव्याप्तियुक्त कहते हैं। प्रात्माका उक्त लक्षण इस अतिव्याप्ति दूषणसे भी रहित है, क्योंकि, 'चेतनालक्षरण' जीव पदार्थको छोड़कर अन्य किसी भी पदार्थमें संघटित नहीं होता, परन्तु यदि प्रात्माका लक्षण अमूतोंक (मूर्ति रहित) कहा जावे, तो अतिव्याप्ति दूषण आ घेरता है, क्योंकि प्रात्माका अमूर्तीक गुण धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्योंमें भी पाया जाता है, और जो लक्षण प्रत्यक्ष तथा परोक्ष प्रमाणोंसे लक्ष्यमात्रमें पाया ही नहीं जाता है, उसे असंभवी कहते हैं । आत्माका 'चेतनालक्षण' इस दूषणसे भी रहित है, क्योंकि यह लक्षण जीवमें प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणों द्वारा सिद्ध किया हुआ है, परंतु आत्माका लक्षण यदि जड़ सहित कहा जावे, तो असंभव दोष का आगमन होता है, क्योंकि यह लक्षण प्रत्यक्ष प्रमाणसे बाधित है । इस प्रकार आत्माका चेतना लक्षण तीनों दोषोंसे रहित है। चेतना दो प्रकारकी है, एक ज्ञानचेतना और दूसरी दर्शनचेतना । जो चेतना पदार्थोंको विशेषतासे साकाररूप प्रदर्शित करे, अर्थात् जाने, उसे ज्ञानचेतना और जो सामान्यरूपसे निराकाररूप प्रदर्शित करे, उसे दर्शनचेतना कहते हैं । फिर यही चेतना परिणमनको अपेक्षा तीन प्रकार है-एक ज्ञानचेतना जो कि शुद्धज्ञान स्वभावरूप परिणमन करती है, दूसरी कर्मचेतना जो कि रागादि कार्यरूप परिणमन करती है, और तीसरी कर्मफलचेतना जो कि सुख दुःखादि भोगनेरूप परिणमन करती है। उक्त प्रकारसे चेतनाके अनेक स्वांग होते हैं, परन्तु चेतनाका प्रभाव कहीं भी नहीं होता। इसी चेतना लक्षणसे विराजमान जीव संज्ञक पदार्थका नाम पुरुष है ! 'स्पर्शरसगंधवणः विवजितः' १-पुरि शेते इति पुरुषः । २-धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्य भी अमूर्तीक है।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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