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________________ श्लोक ६-७-८ ] पुरुषार्थसिद्धय पायः। ____भावार्थ-जैसे बालक जो सिंह और बिल्ली दोनोंसे अजान है, बिल्लीको ही सिंह मान लेता है, उसी प्रकार अज्ञानी जीव निश्चयनयको विनाजाने व्यवहारको ही निश्चयमान बैठता है, प्रात्माके श्रद्धान, ज्ञान, प्राचरणरूप मोक्षमार्गको नहीं पहिचानकर व्यवहाररूप दर्शन, ज्ञान, चारित्रका साधन कर आपको मोक्षमार्गी मानता है, अर्थात् अरहंतदेव, निर्ग्रन्थगुरु, दयामयी धर्मका साधनकर सम्यक्त्वो मानता और किञ्चित् जिनवाणीको जानकर सम्यग्ज्ञानी मानता है, महाव्रतादि क्रियाओंके साधनमात्रसे चारित्रवान् मानता है, इस भाँति अज्ञानी जीव शुभोपयोगमें सन्तुष्ट होकर शुद्धोपयोगरूप मोक्षमार्ग में प्रमादी हो जाते हैं और केवल व्यवहारनयके ही अवलम्बी हो जाते हैं । ऐसे जीवोंको उपदेश देना निष्फल है। व्यवहारनिश्चयो यः प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ॥ ८॥ अन्वयार्थी -[ यः ] जो जीव [व्यवहारनिश्चयौ] व्यवहारनय और निश्चयनयको [ तत्त्वेन ] वस्तुस्वरूपके द्वारा [प्रबुध्य ] यथार्थरूप जानकर [ मध्यस्थः ] मध्यस्थ [ भवति ] होता है. अर्थात् निश्चयनय व व्यवहारनयसे पक्षपात रहित होता है, [सः] वह [एव] ही [शिष्यः] शिष्य [देशनायाः] उपदेशके [ अविकलं ] सम्पूर्ण [ फलं ] फलको [ प्राप्नोति ] प्राप्त होता है । भावार्थ-श्रोतामें अनेक गुणोंकी आवश्यकता है, परन्तु उन सबमें व्यवहार निश्चयको जान करके हठग्राही न होना मुख्य गुण है उक्तं च गाथाजइ जिएमयं पवंजह ता मा ववहारणिच्छए मुग्रह । एकेरण विणा छिजइ, तित्थं अणगेण पुरण तच्चं ॥ -पं० प्रवर आशाधरकृत अनंगारधर्मामृत प्र० प्र० पृष्ट १८. अर्थात् जो तू जिनमतमें प्रवर्तन करता है, तो व्यवहार निश्चयको मत छोड़ । जो निश्चयका पक्षपाती होकर व्यवहारको छोड देगा, तो रत्नत्रयस्वरूप धर्मतीर्थका अभाव हो जावेगा, और जो व्यवहारका पक्षपाती होकर निश्चयको छोड़ेगा, तो शुद्धतत्त्व स्वरूपका अनुभव होना दुस्तर है । इसलिये व्यवहार निश्चयको अच्छी तरह जानकर पश्चात् यथायोग्य अंगीकार करना, पक्षपाती न होना, यह उत्तम श्रोताका लक्षण है । यहाँ पर यदि कोई प्रश्न करे कि जो गुण निश्चय व्यवहारका जानना वक्ताका कहा था, वही श्रोताका क्यों कहा ? तो इसका उत्तर यही है कि वक्तामें गुण अधिकतासे रहते हैं और श्रोतामें वे ही गुण स्तोकरूपसे रहते हैं। इति उत्थानिका
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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